नन्ही गिलहरी का रामसेतु मे सहयोग सुनके भावविभोर हो जाएँगे आप, ज़रूर पढ़ें -

जब पूरी सेना रामसेतु बनाने के कार्य व्यस्त थी,  उसी समय लक्ष्मण ने भगवान राम को काफी देर तक एक ही दिशा में निहारते हुए देख पूछा भैया आप क्या देख रहें इतनी देर से ?

भगवान राम ने इशारा करते हुए बताया कि वो देखो लक्ष्मण एक गिलहरी बार – बार समुद्र के किनारे जाती है और रेत पर लोटपोट करके रेत को अपने शरीर पर चिपका लेती है। जब रेत उसके शरीर पर चिपक जाता है फिर वह सेतु पर जाकर अपना सारा रेत सेतु पर झाड़ आती है। वह काफी देर से यही कार्य कर रही है। लक्ष्मण जी बोले प्रभु वह समुन्द्र में क्रीड़ा का आनंद ले रही है ओर कुछ नहीं।




भगवान राम ने कहा, नहीं लक्ष्मण तुम उस गिलहरी के भाव को समझने का प्रयास करो। चलो आओ उस गिलहरी से ही पूछ लेते हैं की वह क्या कर रही है।  दोनों भाई उस गिलहरी के निकट गए। भगवान राम ने गिलहरी से पूछा की तुम क्या कर रही हो ? गिलहरी ने जवाब दिया कि कुछ भी नहीं प्रभु बस इस पुण्य कार्य में थोड़ा बहुत योगदान दे रही हूँ। भगवान राम को उत्तर देकर गिलहरी फिर से अपने कार्य के लिए जाने लगी, तो लक्ष्मण जी उसे टोकते हुए बोले की तुम्हारे रेत के कुछ कण डालने से क्या होगा ?


गिलहरी बोली की आप सत्य कह रहे हैं। में सृष्टि की इतनी लघु प्राणी होने के कारण इस महान कार्य हेतु कर भी क्या सकती हूँ। मेरे कार्य का मूल्यांकन भी क्या होगा। प्रभु में यह कार्य किसी आकांक्षा से नहीं कर रही। यह कार्य तो राष्ट्र कार्य है, धर्म की अधर्म पर जीत का कार्य है। धर्म कार्य किसी एक व्यक्ति अथवा वर्ग का नहीं अपितु योग्यता अनुसार सम्पूर्ण समाज का होता है। जितना कार्य वह कर सके नि:स्वार्थ भाव से समाज को धर्म हित का कार्य करना चाहिए। मेरा यह कार्य आत्म संतुष्टि के लिए है। हाँ मुझे इस बात का खेद आवश्य है कि में सामर्थ्यवान एवं शक्तिशाली प्राणियों कि भाँति सहयोग नहीं कर पा रही।





भगवान राम गिलहरी की बात सुनकर भाव विभोर हो उठे। भगवान राम ने उस छोटी सी गिलहरी को अपनी हथेली पर बैठा लिया और उसके शरीर पर प्यार से हाथ फेरने लगे। भगवान राम का स्पर्श पाते ही गिलहरी का जीवन धन्य हो गया।हमारी मातृभूमि की सेवा का कार्य भी पुनीत राष्ट्रीय कार्य है। इस कार्य में हमारे समाज के प्रत्येक नागरिक का योगदान आवश्य होना चाहिए।





Source: hindvicharak.in

जानिए पूरी कहानी क्यूँ करते हैं शनिवार को हनुमान जी की पूजा?

नवग्रहों में सबसे क्रूर ग्रह शनि देव को माना जाता  है की जिस पर नजर पड़ जाए, उसका जीवन नरक होने लगता  है। काफी कोशिशों  के बाद भी काम बनते नहीं,  दुख काटे कटते नहीं और ऐसा लगता है जीवन से खुशियां रूठ गयी हों। यही लक्षण हैं शनि की दशा के, उनके प्रकोप के, लेकिन बजरंगबली का नाम लेने और उनकी पूजा करने से आप इन तमाम समस्याओं से मुक्ति पा सकते हैं. अब ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर शनिवार को शनिदेव संग पवनपुत्र की भी पूजा करने से ऐसा क्यों होता है, क्या है कहानी क्यों ऐसा विधान माना गया है।




इस सवाल का जवाब त्रेतायुग में छिपा हुआ है, कहानी उस समय की है जब माता सीता को ढूढते हुए हनुमान जी लंका पहुंचे थे, हनुमान जी जब पूरी लंका में  घूम घूम कर लंकादहन कर रहे थे तो उन्होंने एक कारागार में शनि देव को उल्टा लटके हुए देखा। जब हनुमान ने उनसे इसका कारण पूछा तो शनिदेव ने बताया कि रावण ने अपने योग बल से उन्हें पराजित करके लंका में कैद कर रखा है, तब हनुमान जी ने शनिदेव को रावण की कैद से मुक्ति दिलायी।





इससे प्रसन्न होकर शनिदेव ने हनुमान से वरदान मांगने को कहा, तब बजरंगबली ने शनिदेव से कहा कि वो सब जो उनका प्रिय हो, जो उनकी आराधना करे आप कभी भी उसे परेशान नहीं करेंगे और तभी से शनिवार को हनुमान जी की पूजा की परंपरा शुरू हो गई।




ज़रूर जानिए - आखिर क्यों दिया रघुनंदन ने लक्ष्मण को मृत्युदंड?

रामायण में इस घटना का वर्णन आता है, श्री  रामचन्द्र जी को न चाहते हुए भी अपने प्रिय अनुज लक्ष्मण को मृत्युदंड देना पड़ा।

श्री राम जी के लंका विजय करके अयोध्या लौट आने और राजा बनने के उपरान्त एक दिन यम देवता कोई महत्तवपूर्ण चर्चा करने श्री राम के पास आते हैं, चर्चा शुरू होने से पहले वो भगवान राम से कहते है की आप जो भी वचन देते हो उसे पूरा करते हो मैं भी आपसे एक वचन मांगता हूं कि जब तक हमारे बीच वार्तालाप चले तो बीच कोई नहीं आएगा और जो आएगा, उसको आपको मृत्युदंड देंगे  भगवान राम, यम को यही वचन देते हैं।

भगवान राम, लक्ष्मण को यह कहते हुए द्वारपाल नियुक्त कर देते हैं और कहते हैं की जब तक उनकी और यम की बात हो रही है वो किसी को भी अंदर न आने दे, अन्यथा तुम्हे मृत्युदंड देना पड़ेगा ऐसा मैंने वचन दिया है । लक्ष्मण भाई की आज्ञा मानकर द्वारपाल बनकर खड़े हो जाते हैं ।




लक्ष्मण को द्वारपाल बने कुछ ही समय बीतता है की वहां पर ऋषि दुर्वासा आते हैं।  दुर्वासा जी ने लक्ष्मण से अपने आने की सूचना राम जी को देने के लिये कहा तो लक्ष्मण जी ने विनम्रता के साथ मना कर दिया। इस पर दुर्वासा बहुत क्रोधित हो गये, सम्पूर्ण अयोध्या को श्राप देने की बात कहने लगे ।

लक्ष्मण समझ गए कि ये एक विकट स्थिति है जिसमें या तो उन्हे रामाज्ञा का उल्लङ्घन करना होगा या फिर सम्पूर्ण नगर को ऋषि के श्राप की अग्नि में झोेंकना होगा। लक्ष्मण ने शीघ्र ही यह निश्चय कर लिया कि उनको स्वयं का बलिदान देना होगा ताकि वो नगर वासियों को ऋषि के श्राप से बचा सकें। उन्होने भीतर जाकर ऋषि दुर्वासा के आगमन की सूचना दी।

राम भगवान ने शीघ्रता से यम के साथ अपनी वार्तालाप समाप्त कर ऋषि दुर्वासा की आव-भगत की। परन्तु अब श्री राम दुविधा में पड़ गए क्योंकि उन्हें अपने वचन के अनुसार लक्ष्मण को मृत्यु दंड देना था। वो समझ नहीं पा रहे थे की वो अपने भाई को मृत्युदंड कैसे दे, लेकिन उन्होंने यम को वचन दिया था जिसे निभाना ही था।
इस दुविधा की स्तिथि में श्री राम ने अपने गुरु का स्मरण किया और कोई रास्ता दिखाने को कहा। गुरदेव ने कहा की अपने किसी प्रिय का त्याग, उसकी मृत्यु के समान ही है।  अतः तुम अपने वचन का पालन करने के लिए लक्ष्मण का त्याग कर दो।

लेकिन जैसे ही लक्ष्मण ने यह सुना तो उन्होंने राम से कहा की आप भूल कर भी मेरा त्याग नहीं करना, आप से दूर रहने से तो यह अच्छा है की मैं आपके वचन की पालना करते हुए मृत्यु को गले लगा लूँ। ऐसा कहकर लक्ष्मण ने जल समाधी ले ली।


Source: AjabGajab.com & Wikipedia

अकबर ने किया था तुलसीदास जी को जेल में बंद तब लिखी थी हनुमान चलीसा

ये माना जाता था की तुलसीदास जी  के पास बहुत सी चमत्कारी शक्तियां थीं । एक बार एक मरे हुए ब्राह्मण को अंतिम संस्कार के लिए ले जाया जा रहा था और उसी रास्ते से तुलसीदास जी भी जा रहे थे तभी विधवा औरत ने तुलसीदास जी के पैरों पे गिर पड़ी और प्रणाम किया, तुलसीदास जी ने उस औरत को "सदासौभाग्यावती " होने का आशीर्वाद दिया, औरत ने कहा मैं सदासौभाग्यावती कैसे हो सकती है मेरे पति अभी मर गए हैं, तुलसीदास ने कहा ये शब्द तो निकल चुके हैं अब इसे जीवित करना पड़ेगा। तुलसीदास जी ने फिर सबसे अपनी आँखे बंद करने को कहा और राम नाम जपने लगे, जिससे वो ब्राह्मण फिर से जी गया।

तुलसीदास की ख्याति से अभिभूत होकर अकबर ने तुलसीदास को अपने दरबार में बुलाया और अपने किसी मरे आदमी को ज़िंदा करने को कहा, परन्तु यह प्रदर्शन-प्रियता तुलसीदास की प्रकृति और प्रवृत्ति के प्रतिकूल थी, अकबर ने उनसे जबरदस्ती चमत्कार दिखाने पर विवश किया, लेकिन ऐसा करने से उन्होंने इनकार कर दिया, फलस्वरूप अकबर ने  तुलसीदास को फतेहपुर सिकरी जेल में कैद करवा दिया।



अकबर  के समक्ष झुकने के विपरीत तुलसीदास जी ने हनुमान जी का नाम लिया और हनुमान चालीसा जेल  में ही 40 दिनों में लिख दिया।  तदुपरांत बंदरों की सेना ने किले पे चढ़ाई कर दी, राजधानी और राजमहल में अभूतपूर्व एवं अद्भुत उपद्रव शुरु हो गया।  घरों में घुसकर सबको मरने लगे,  सैनिकों और द्वारपालों को नोचने लगे,  ईंटों को तोड़ने लगे, और सबको उसी ईंट से मारते थे, भयंकर उपद्रव देखने को मिला, सभी बुरी तरह भयभीत हो गए।  अकबर को बताया गया कि यह हनुमान जी का क्रोध है, अकबर को  विवश होकर तुलसीदास जी को मुक्त कर देना पड़ा, उनसे माफ़ी मांगी और आग्रह किया के किले और राजधानी को बंदरों से मुक्त कराएं।

इसके बाद अकबर तुलसीदास जी के मित्र बन गए और फरमान दिया की  उनके राज में राम - हनुमान भक्तों, और दूसरे हिन्दुओं को परेशान नहीं किया जायेगा।

In English-

Tulsidas is attributed with the power of working miracles. In one such miracle, he is believed to have brought back a dead Brahmin to life. While the Brahmin was being taken for cremation, his widow bowed down to Tulsidas on the way who addressed her as Saubhagyavati (a woman whose husband is alive).The widow told Tulsidas her husband had just died, so his words could not be true Tulsidas said that the word has passed his lips and so he would restore the dead man to life. He asked everybody present to close their eyes and utter the name of Rama, on doing which the dead Brahmin was raised back to life.

In another miracle described by Priyadas, the emperor of Delhi, Akbar summoned Tulsidas on hearing of his bringing back a dead man to life. Tulsidas declined to go as he was too engrossed in creating his verses but he was later forcibly brought before the Akbar and was asked to perform a miracle, which Tulsidas declined by saying "It's a lie, all I know is Rama." The emperor imprisoned Tulsidas at Fatehpur Sikri, "We will see this Rama." Tulsidas refused to bow to Akbar and created a verse in praise of Hanuman and chanted it ( Hanuman Chalisa ) for forty days and suddenly an army of monkeys descended upon the town and wreaked havoc in all corners of Fatehpur Sikri, entering each home and the emperor's harem, scratching people and throwing bricks from ramparts. An old Hafiz told the emperor that this was the miracle of the imprisoned Fakir. The emperor fell at Tulsidas' feet, released him and apologised. Tulsidas stopped the menace of monkeys and asked the emperor to abandon the place. The emperor agreed and moved back to Delhi. Ever since Akbar became a close friend of Tulsidas and he also ordered a firman that followers of Rama, Hanuman & other Hindus, should not be harassed in his kingdom.


Source: Wikipedia

मेघनाद की शक्तियों और शूरवीरता जानकर दंग हो जायेंगे आप, जरूर पढ़ें -

मेघनाद लंका के राजा रावण का पुत्र था, जो मयकन्या तथा रावण की पटरानी मंदोदरी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। इसने जन्म लेते ही मेघ के समान गर्जना की थी, अत: 'मेघनाद' नाम से भगवान ब्रह्मा ने इसे पुकारा था। मेघनाद बड़ा ही वीर तथा प्रतापी था। देवराज इंद्र को भी युद्ध में इसने पराजित किया था, इसीलिए इसे 'इंद्रजित' नाम से भी जाना जाता है। मेघनाद ने राम और लक्ष्मण को दो बार युद्ध में परास्त किया था, किंतु अंत में वह लक्ष्मण के हाथों युद्ध के तीसरे दिन बड़े प्रयास से मारा गया। वासुकि नाग की पुत्री सुलोचना मेघनाद की पत्नी थी, जो अपने पतिव्रत धर्म के लिए प्रसिद्ध थी।  

मेघनाद जन्म - 


पौराणिक कथानुसार लंकापति रावण ने अपनी अपार शक्ति से न केवल देवताओं का राज्य छीन लिया, बल्कि उसने सभी ग्रहों को भी कैद कर लिया था। जब मेघनाद का जन्म होने वाला था, तब रावण ने सभी ग्रहों को उनकी उच्च राशि में स्थापित होने का आदेश दिया। उसके भय से ग्रस्त ग्रहों को भविष्य में घटने वाली घटनाओं को लेकर बड़ी चिंता सताने लगी। पर मेघनाद के जन्म के ठीक पहले शनि देव ने अपनी राशि बदल दी। इस कारण मेघनाद अपराजेय व दीर्घायुवान नहीं हो सका। रावण ने क्रोध में आकर शनि के पैर पर गदा से प्रहार किया। इस कारण शनि की चाल में लंगड़ाहट आ गई।




मेघनाद की दिव्य शक्तियाँ - 

देवताओं के राजा इन्द्र को युद्ध में पराजित करने के कारण ही मेघनाद को 'इन्द्रजित' कहा गया था। मेघनाद ने युवास्था में दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य की सहायता से 'सप्त यज्ञ' किए थे और शिव के आशीर्वाद से दिव्य रथ, दिव्यास्त्र और तामसी माया प्राप्त की थी। जब हनुमान सीता की खोज में लंका आये और उन्होंने अशोक वाटिका को उजाड़ना शुरू किया, तब मेघनाद ने ही उन्हें ब्रह्मपाश से बंदी बनाया था। उसने राम की सेना से मायावी युद्ध किया था। कभी वह अंतर्धान हो जाता, तो कभी प्रकट हो जाता। विभीषण ने कुबेर की आज्ञा से गुह्यक जल श्वेत पर्वत से लाकर दिया था, जिससे नेत्र धोकर अदृश्य को भी देखा जा सकता था। श्रीराम की ओर के सभी प्रमुख योद्धाओं ने इस जल का प्रयोग किया था, जिससे मेघनाद से युद्ध किया जा सके।


इन्द्र पर विजय -

जब मेघनाद का जन्म हुआ तो वह मेघ गर्जन के समान ज़ोर से रोया, इसी से उसका नाम मेघनाद रखा गया। एक कथा के अनुसार- देवलोक पर विजय प्राप्त करने की इच्छा से रावण ने देवताओं से युद्ध किया। उस भयानक युद्ध में देवताओं और राक्षसों के अनेक सैनिक मारे गये। अंत में मेघनाद ने अपनी माया से चारों ओर अंधकार फैलाकर इन्द्र को बंदी बना लिया। मेघनाद इन्द्र को लेकर लंका चला गया। इससे परेशान होकर सब देवता ब्रह्मा को लेकर मेघनाद के पास पहुंचे। ब्रह्मा ने इन्द्र को छोड़ने के लिए कहा और बदले में मेघनाद को निम्न वर प्रदान किए-

वह 'इन्द्रजित' नाम से प्रसिद्ध होगा।
उसे अनेक सिद्धियाम प्राप्त होंगी।
किसी भी युद्ध से पूर्व यज्ञ करने पर अग्नि से उसके लिए घोड़े सहित रथ निकलेगा, जिन पर बैठा वह अजेय रहेगा, किंतु यदि कभी यज्ञ पूरा नहीं हो पाया तो वह युद्ध में मारा जायेगा।
यज्ञकर्ता

ब्रह्मा की प्रेरणा से इन्द्र ने वैष्णव यज्ञ किया, तभी वह देवलोक का अधिपति बनने का अधिकारी हुआ। देवता-गण उसे लेकर देवलोक चले गये। मेघनाद ने निकुंभिला के स्थान पर जाकर अग्निष्टोम, अश्वमेध आदि सात यज्ञ करके शिव से अनेक वर प्राप्त किये थे। सबसे अंतिम माहेश्वर यज्ञ रह गया था। उन यज्ञों के फलस्वरूप उसे 'तामसी' नामक माया की प्राप्ति हुई थी, जो कभी भी अंधकार फैला सकती थी। साथ ही आकाशगामी दिव्य रथ भी प्राप्त हुआ था। मेघनाद को ब्रह्मा के वरदान से ‘ब्रह्माशिर’ नाम का अस्त्र और इच्छानुसार चलने वाले घोड़े प्राप्त थे। वह जिस सिद्धि को प्राप्त करने निकुंभिलादेवी के मंदिर में गया था, उसे सिद्ध करने के उपरांत देवताओं समेत इन्द्र भी उसे जीतने में असमर्थ हो जाते। ब्रह्मा ने उससे कहा था- 'हे इन्द्रजित, यदि तुम्हारा कोई शत्रु निकुंभिला में तुम्हारे यज्ञ समाप्त करने से पूर्व युद्ध करेगा तो तुम मार डाले जाओगे।'

मेघनाद का राम से युद्ध -

राम से युद्ध होने पर सब वीर राक्षसों को नष्टप्राय देखकर रावण ने मेघनाद को युद्ध करने के लिए कहा। मेघनाद ने युद्ध में जाने से पूर्व अग्नि में राक्षसी हवन किया। लाल पगड़ी बांधकर कई हज़ार राक्षसियाँ इन्द्रजित की रक्षा में व्यस्त हो गयीं। उस यज्ञ में सरपत के स्थान पर शस्त्र बिछाये गये थे। बहेड़े की लकड़ी, लाल वस्त्र और काले लोहे की स्त्रुवा लायी गयी थीं। शरपत्रों से अग्नि प्रज्वलित करके एक जीवित काले बकरे का गला पकड़ा और अग्नि में छोड़ दिया। धूम्ररहित अग्नि ने प्रज्वलित होकर विजय की सूचना दी। सुवर्ण अग्नि ने स्वयं प्रकट होकर दाहिनी ओर बढ़कर इन्द्रजित की दी हुई हवि को स्वीकार किया। हवन समाप्ति के उपरंत देवताओं, दानवों और राक्षसों को तृप्त किया गया।

युद्ध के समय मेघनाद ने अपनी माया से मायावी सीता का निर्माण किया था, जिससे श्रीराम के वानर सैनिकों तथा योद्धाओं को धोखा दिया जा सके। युद्ध में किसी समय मायावी सीता को मरा जानकर हनुमान की आज्ञा से वानरों ने युद्ध बंद कर दिया। मेघनाद निकुंभिलादेवी के स्थान पर गया। वहाम उसने हवन किया। मांस और रुधिर की आहुति से अग्नि प्रज्वलित हो गयी। मेघनाद को ब्रह्मा से वरदान प्राप्त था कि निकुंभिलादेवी के मंदिर यज्ञ समाप्त करने के उपरांत समस्त देवता एंव इन्द्र भी उसे पराजित न कर पायेंगे, किंतु यदि किसी शत्रु ने यज्ञ में विघ्न डाला तो वह मारा जायेगा।


मेघनाद का वध - 

मेघनाद विशाल भयानक वटवृक्ष के पास भूतों को बलि देकर युद्ध में जाता था, इसी से वह अदृश्य होकर युद्ध कर पाता था। विभीषण ने लक्ष्मण और राम को मेघनाद की मायावी शक्ति के साथ यह बताया कि ब्रह्मा ने अनेक वर देते हुए यह भी कहा था कि 'यदि तुम्हारा कोई शत्रु निकुंभिला में तुम्हारे यज्ञ समाप्त करने से पूर्व युद्ध करेगा तो तुम मार डाले जाओगे।' अतः लक्ष्मण ने मेघनाद के यज्ञ विघ्न डाला। ससैन्य लक्ष्मण को युद्धार्थ आया देखकर मेघनाद को लेकर एक भयानक वट-वृक्ष के पास पहुंचा और बोला कि मेघनाद इसी स्थान पर भूतों को बलि चढ़ाकर जाता है, इसी से वह अदृश्य होकर युद्ध करने में समर्थ रहता है। लक्ष्मण वहां प्रतीक्षा करते रहे। जब मेघनाद आया तो दोनों में युद्ध छिड़ गया। भयंकर युद्ध के बाद लक्ष्मण ने उसके घोड़े और सारथी को मार डाला। मेघनाद लंकापुरी गया तथा दूसरा रथ लेकर फिर युद्ध-कामना के साथ लौटा। दोनों का युद्ध पुनः आरंभ हुआ। अंत में लक्ष्मण ने मेघनाद को मार डाला।



Source: bharatdiscovery.org

Hanuman Jayanti

We celebrate the birthday of Lord Hanuman on the 15th day of Shukla Paksha, during Chaitra month also known as (the Chaitra Pournimaa). Lord Hanuman also known as the Vanara god's birthday is widely known as Hanuman Jayanti or Hanumath Jayanti.


Hanuman worships Lord Rama, and there are innumerable tales and legends associated with the two in Ramayana. Hanuman Jayanti is celebrated across the country with full gusto where devotees throng the temples to seek the lord's blessings.
Lord Hanuman symbolises engery, strength and power. His swiftness makes him fly high and even get Sanjeevani bhooti for Lord Laxmana. 
Also, in Maharashtra, the Hanuman Jayanti is celebrated on the full moon day (pūrnima) of the Hindu lunar month of Chaitra.

What to do:


You can recite Hanuman Chalisa on this day and pray to the lord for good health and strength. The lord destroys all that is evil, keeping you energised.
You can visit the Hanuman temple and offer prasad—laddoo, boondi and red tilak (or sindoor). You can even offer vastra to the lord—preferably orange coloured.
Pray to lord for everyone's well-being with pure heart and soul.
You can also visit any temple of Lord Ram, as lord Hanuman will also be there, accompanying the 'Maryada Purshottam' king and his complete family—Sita and Laxman.


Souce: zeenews

आइए जानते है रावण के भाई कुम्भकर्ण से जुडी कुछ रोचक बातें-

कुम्भकर्ण रावण का भाई तथा विश्रवा का पुत्र था। कुंभकर्ण की ऊंचाई छह सौ धनुष तथा मोटाई सौ धनुष थी। उसके नेत्र गाड़ी के पहिये के बराबर थे। उसका विवाह वेरोचन की कन्या 'व्रज्रज्वाला' से हुआ था। वह जन्म से ही अत्यधिक बलवान था उसने जन्म लेते ही कई हज़ार प्रजा जनों को खा डाला था उसे बेहद भूख लगती थी और वह मनुष्य और पशुओं को खा जाता था। उससे डरकर प्रजा इन्द्र की शरण में गयी कि यदि यही स्थिति रही तो पृथ्वी ख़ाली हो जायेगी। इन्द्र से कुंभकर्ण का युद्ध हुआ। उसने ऐरावत हाथी के दांत को तोड़कर उससे इन्द्र पर प्रहार किया। उससे इन्द्र जलने लगा।

कुंभकर्ण ने घोर तपस्या से ब्रह्मा को प्रसन्न कर लिया अत: जब वे उसे वर देने के लिए जाने लगे तो इन्द्र तथा अन्य सब देवताओं ने उनसे वर न देने की प्रार्थना की क्योंकि कुंभकर्ण से सभी लोग परेशान थे। ब्रह्मा बहुत चिंतित हुए। उन्होंने सरस्वती से कुंभकर्ण की जिह्वा पर प्रतिष्ठित होने के लिए कहा। फलस्वरूप ब्रह्मा के यह कहने पर कि कुंभकर्ण वर मांगे- उसने अनेक वर्षों तक सो पाने का वर मांगा। ब्रह्मा ने वर दिया कि वह निरंतर सोता रहेगा। छह मास के बाद केवल एक दिन के लिए जागेगा। भूख से व्याकुल वह उस दिन पृथ्वी पर चक्कर लगाकर लोगों का भक्षण करेगा।

कुंभकर्ण के विषय में श्रीराम चरित मानस में लिखा है कि-

अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता।।
करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा।।

रावण का भाई कुंभकर्ण अत्यंत बलवान था, इससे टक्कर लेने वाला कोई योद्धा पूरे जगत में नहीं था। वह मदिरा पीकर छ: माह सोया करता था। जब कुंभकर्ण जागता था तो तीनों लोकों में हाहाकार मच जाता था।

रावण, विभीषण और कुंभकर्ण तीनों भाईयों ने ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की थी। तपस्या से प्रसन्न होकर जब ब्रह्माजी प्रकट हुए तो कुंभकर्ण को वरदान देने से पहले चिंतित थे। इस संबंध में श्रीरामचरित मानस में लिखा है कि-

पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ।

इसका अर्थ यह है कि रावण को मनचाहा वरदान देने के बाद ब्रह्माजी कुंभकर्ण के पास गए। उसे देखकर ब्रह्माजी के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ।

जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू।।
सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी।।

ब्रह्माजी की चिंता का कारण ये था कि यदि कुंभकर्ण हर रोज भरपेट भोजन करेगा तो जल्दी ही पूरी सृष्टि नष्ट हो जाएगी। इस कारण ब्रह्माजी ने सरस्वती के द्वारा कुंभकर्ण की बुद्धि भ्रमित कर दी थी। कुंभकर्ण ने मतिभ्रम के कारण 6 माह तक सोते रहने का वरदान मांग लिया।



सीता हरण के बाद श्री राम वानर सेना सहित लंका पहुंच गए थे। श्री राम और रावण, दोनों की सेनाओं के बीच घमासान युद्ध होने लगा, उस समय कुंभकर्ण सो रहा था। जब रावण के कई महारथी मारे जा चुके थे, तब कुंभकर्ण को जगाने का आदेश दिया गया। कई प्रकार के उपायों के बाद जब कुंभकर्ण जागा और उसे मालूम हुआ कि रावण ने सीता का हरण किया है तो उसे बहुत दुख हुआ था।

जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान।

कुंभकर्ण दुखी होकर रावण से बोला कि अरे मूर्ख। तूने जगत जननी का हरण किया है और अब तू अपना कल्याण चाहता है?

इसके बाद कुंभकर्ण ने रावण को कई प्रकार से समझाया कि श्रीराम से क्षमायाचना कर लें और सीता को सकुशल लौटा दे। ताकि राक्षस कुल का नाश होने से बच जाए। इतना समझाने के बाद भी रावण नहीं माना।

जब रावण युद्ध टालने की बातें नहीं माना तो कुंभकर्ण बड़े भाई का मान रखते हुए युद्ध के लिए तैयार हो गया। कुंभकर्ण जानता था कि श्रीराम साक्षात भगवान विष्णु के अवतार हैं और उन्हें युद्ध में पराजित कर पाना असंभव है। इसके बाद भी रावण का मान रखते हुए, वह श्रीराम से युद्ध करने गया। वह अत्यंत भूखा था। उसने वानरों को खाना प्रारंभ किया। उसका मुंह पाताल की तरह गहरा था। वानर कुंभकर्ण के गहरे मुंह में जाकर उसके नथुनों और कानों से बाहर निकल आते थे। अंततोगत्वा राम युद्धक्षेत्र में उतरे। उन्होंने पहले बाणों से हाथ, फिर पांव काटकर कुंभकर्ण को पंगु बना दिया। तदनंतर उसे अस्त्रों से मार डाला। उसके शव के गिरने से लंका का बाहरी फाटक और परकोटा गिर गया।



Source: ajabgjab.com and http://bharatdiscovery.org/


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