कौन थी शबरी और क्या थी उसकी कहानी ज़रूर पढ़ें -

शबरी की कहानी रामायण के अरण्य काण्ड मैं आती है. वह भीलराज की अकेली पुत्री थी. जाति प्रथा के आधार पर वह एक निम्न जाति मैं पैदा हुई थी. विवाह मैं उनके होने वाले पति ने अनेक जानवरों को मारने के लिए मंगवाया. इससे दुखी होकर उन्होंने विवाह से इनकार कर दिया. फिर वह अपने पिता का घर त्यागकर जंगल मैं चली गई और वहाँ ऋषि मतंग के आश्रम मैं शरण ली. ऋषि मतंग ने उन्हें अपनी शिष्या स्वीकार कर लिया. इसका भारी विरोध हुआ. दूसरे ऋषि इस बात के लिए तैयार नहीं थे कि किसी निम्न जाति की स्त्री को कोई ऋषि अपनी शिष्या बनाये. ऋषि मतंग ने इस विरोध की परवाह नहीं की. ऋषि समाज ने उनका वहिष्कार कर दिया और ऋषि मतंग ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया.



ऋषि मतंग जब परम धाम को जाने लगे तब उन्होंने शबरी को उपदेश किया कि वह परमात्मा मैं अपना ध्यान और विश्वास बनाये रखें. उन्होंने कहा कि परमात्मा सबसे प्रेम करते हैं. उनके लिए कोई इंसान उच्च या निम्न जाति का नहीं है. उनके लिए सब समान हैं. फिर उन्होंने शबरी को बताया कि एक दिन प्रभु राम उनके द्वार पर आयेंगे.

ऋषि मतंग के स्वर्गवास के बाद शबरी ईश्वर भजन मैं लगी रही और प्रभु राम के आने की प्रतीक्षा करती रहीं. लोग उन्हें भला बुरा कहते, उनकी हँसी उड़ाते पर वह परवाह नहीं करती. उनकी आंखें बस प्रभु राम का ही रास्ता देखती रहतीं. और एक दिन प्रभु राम उनके दरवाजे पर आ गए.

शबरी धन्य हो गयीं. उनका ध्यान और विश्वास उनके इष्टदेव को उनके द्वार तक खींच लाया. भगवान् भक्त के वश मैं हैं यह उन्होंने साबित कर दिखाया. उन्होंने प्रभु राम को अपने झूठे फल खिलाये और दयामय प्रभु ने उन्हें स्वाद लेकर खाया. फ़िर वह प्रभु के आदेशानुसार प्रभुधाम को चली गयीं.

शबरी की कहानी से क्या शिक्षा मिलती है? आइये इस पर विचार करें. कोई जन्म से ऊंचा या नीचा नहीं होता. व्यक्ति के कर्म उसे ऊंचा या नीचा बनाते हैं. ब्राहमण परिवार मैं जन्मे ऋषि ईश्वर का दर्शन तक न कर सके पर निम्न जाति मैं जन्मीं शबरी के घर ईश्वर ख़ुद चलकर आए और झूठे फल खाए. हम किस परिवार मैं जन्म लेंगे इस पर हमारा कोई अधिकार नहीं हैं पर हम क्या कर्म करें इस पर हमारा पूरा अधिकार है. जिस काम पर हमारा कोई अधिकार ही नहीं हैं वह हमारी जाति का कारण कैसे हो सकता है. व्यक्ति की जाति उसके कर्म से ही तय होती है, ऐसा भगवान् ख़ुद कहते हैं.

कहे रघुपति सुन भामिनी बाता,
मानहु एक भगति कर नाता.

प्रभु राम ने शबरी को भामिनी कह कर संबोधित किया. भामिनी शब्द एक अत्यन्त आदरणीय नारी के लिए प्रयोग किया जाता है. प्रभु राम ने कहा की हे भामिनी सुनो मैं केवल प्रेम के रिश्ते को मानता हूँ. तुम कौन हो, तुम किस परिवार मैं पैदा हुईं, तुम्हारी जाति क्या है, यह सब मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता. तुम्हारा मेरे प्रति प्रेम ही मुझे तम्हारे द्वार पर लेकर आया है.



Source: sab-ka-maalik.blogspot.com

रामायण जटायु प्रसंग जानिए -

प्रजापति कश्यप की पत्नी विनता के दो पुत्र हुए थे- 'गरुड़' और 'अरुण'। अरुण सूर्य के सारथी हुए। सम्पाती और जटायु इन्हीं अरुण के पुत्र थे।

रामायण के अनुसार

जटायु पंचवटी में आकर रहने लगे। एक दिन आखेट के समय राजा दशरथ से जटायु का परिचय हुआ और ये महाराज के अभिन्न मित्र बन गये। वनवास के समय जब भगवान राम पंचवटी में पर्णकुटी बनाकर रहने लगे, तब जटायु से उनका परिचय हुआ। भगवान श्रीराम अपने पिता के मित्र जटायु का सम्मान अपने पिता के समान ही करते थे।

रावण द्वारा सीता हरण

राम अपनी पत्नी सीता के कहने पर कपट-मृग मारीच को मारने के लिये गये और लक्ष्मण भी सीता के कटुवाक्य से प्रभावित होकर राम को खोजने के लिये निकल पड़े। दोनों भाइयों के चले जाने के बाद आश्रम को सूना देखकर लंका के राक्षस राजा रावण ने सीता का हरण कर लिया और बलपूर्वक उन्हें रथ में बैठाकर आकाश मार्ग से लंका की ओर चल दिया। सीताजी ने रावण की पकड़ से छूटने का पूरा प्रयत्न करने किया, किंतु असफल रहने पर करुण विलाप करने लगीं। उनके विलाप को सुनकर जटायु ने रावण को ललकारा। ग़ृद्धराज जटायु का रावण से भयंकर संग्राम हुआ, लेकिन अन्त में रावण ने तलवार से उनके पंख काट डाले। जटायु मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़े और रावण सीता जी को लेकर लंका की ओर चला गया।



श्री राम की जटायु भेंट -

जब राम लक्ष्मण के साथ सीता की खोज करने के लिये खर-दूषण के जनस्थान की ओर चले तो मार्ग में उन्होंने विशाल पर्वताकार शरीर वाले जटायु को देखा। उसे देख कर लक्ष्मण ने राम से कहा- "भैया! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इसी जटायु ने सीता माता को खा डाला है। मैं अभी इसे यमलोक भेजता हूँ।" ऐसा कह कर अत्यन्त क्रोधित लक्ष्मण ने अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और जटायु को मारने के लिये आगे बढ़े। राम को अपनी ओर आते देख जटायु बोला- "आयुष्मान्! अच्छा हुआ कि तुम आ गये। सीता को लंका का राजा रावण हर कर दक्षिण दिशा की ओर ले गया है और उसी ने मेरे पंखों को काट कर मुझे बुरी तरह से घायल कर दिया है। सीता की पुकार सुन कर मैंनें उसकी सहायता के लिये रावण से युद्ध भी किया। ये मेरे द्वारा तोड़े हुए रावण के धनुष उसके बाण हैं। इधर उसके विमान का टूटा हुआ भाग भी पड़ा है। यह रावण का सारथि भी मरा हुआ पड़ा है। परन्तु उस महाबली राक्षस ने मुझे मार-मार कर मेरी यह दशा कर दी। वह रावण विश्रवा का पुत्र और कुबेर का भाई है। मैंने तुम्हारे दर्शनों के लिये ही अब तक अपने प्राणों को रोक रखा था। अब मुझे अन्तिम विदा दो।"

जटायु मृत्यु -

भगवान श्रीराम के नेत्र भर आये। उन्होंने जटायु से कहा- "तात! मैं आपके शरीर को अजर-अमर तथा स्वस्थ कर देता हूँ, आप अभी संसार में रहें।" जटायु बोले- "श्रीराम! मृत्यु के समय तुम्हारा नाम मुख से निकल जाने पर अधम प्राणी भी मुक्त हो जाता है। आज तो साक्षात तुम स्वयं मेरे पास हो। अब मेरे जीवित रहने से कोई लाभ नहीं है।" भगवान श्रीराम ने जटायु के शरीर को अपनी गोद में रख लिया। उन्होंने पक्षिराज के शरीर की धूल को अपनी जटाओं से साफ़ किया। जटायु ने उनके मुख-कमल का दर्शन करते हुए उनकी गोद में अपना शरीर छोड़ दिया।

जटायु  दाह संस्कार -

जटायु के प्राणहीन रक्तरंजित शरीर को देख कर राम अत्यन्त दुःखी हुए और लक्ष्मण से बोले- "भैया! मैं कितना अभागा हूँ। राज्य छिन गया, घर से निर्वासित हुआ, पिता का स्वर्गवास हो गया, सीता का अपहरण हुआ और आज पिता के मित्र जटायु का भी मेरे कारण निधन हुआ। मेरे ही कारण इन्होंने अपने शरीर की बलि चढ़ा दी। इनकी मृत्यु का मुझे बड़ा दुःख है। तुम जा कर लकड़ियाँ एकत्रित करो। ये मेरे पिता तुल्य थे, इसलिये मैं अपने हाथों से इनका दाह संस्कार करूँगा।" राम की आज्ञा पाकर लक्ष्मण ने लकड़ियाँ एकत्रित कीं। दोनों ने मिल कर चिता का निर्माण किया। राम ने पत्थरों को रगड़ कर अग्नि निकाली। फिर द्विज जटायु के शरीर को चिता पर रख कर बोले- "हे पूज्य गृद्धराज! जिस लोक में यज्ञ एवं अग्निहोत्र करने वाले, समरांगण में लड़ कर प्राण देने वाले और धर्मात्मा व्यक्ति जाते हैं, उसी लोक को आप प्रस्थान करें। आपकी कीर्ति इस संसार में सदैव बनी रहेगी।" यह कह कर उन्होंने चिता में अग्नि प्रज्वलित कर दी। थोड़ी ही देर में जटायु का नश्वर शरीर पंचभूतों में मिल गया। इसके पश्चात् दोनों भाइयों ने गोदावरी के तट पर जाकर दिवंगत जटायु को जलांजलि दी।


Source: bharatdiscovery

हिंदू धर्म में महिलाएं क्यों नही फोड़ सकती नारियल, जानिए कारण

फिर भी हिंदू धर्म की कुछ मान्यताएं अचरच में डालने वाली हैं, यथा अति पवित्र माने जाने वाले नारियल को महिलाएं नहीं फोड़ सकती। जबकि पूजा के दौरान या फिर किसी शुभ कार्य के आरंभ के समय नारियल का प्रयोग किया जाता है। गृह प्रवेश या फिर किसी नए कार्य का शुभारंभ भी नारियल को फोड़कर ही किया जाता है।

महिलाओं को माना गया है साक्षात लक्ष्मी-

हिंदू धर्म में स्त्री को साक्षात लक्ष्मी का स्वरूप माना गया है तथा \'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, तत्र देवता रमन्ते\' कह कर उनकी श्रेष्ठता की बात की गई है। फिर भी पारंपरिक रूप से पूजा के दौरान अथवा अन्य किसी भी स्वरूप में महिलाओं को नारियल फोड़ने का अधिकार नहीं दिया गया है। यह विशेषाधिकार विशेष रूप से पुरुषों के लिए ही सीमित रखा गया है। क्या आपने कभी सोचा है ऐसा क्यों होता है?

इसलिए महिलाएं नहीं फोड़ सकती नारियल-

दरअसल परंपरागत रूप से नारियल को नई सृष्टि का बीज माना गया है। इसकी कथा ब्रह्मऋषि विश्वामित्र द्वारा नई सृष्टि के सृजन करने से जुड़ी हुई है। तब उन्होंने सर्वप्रथम पहली रचना के रूप में नारियल का निर्माण किया, यह मानव का ही प्रतिरूप माना गया था। नारियल को बीज का स्वरूप माना गया है और इसे प्रजनन यानि उत्पादन से जोड़कर देखा गया है।



स्त्री संतान उत्पत्ति की कारक होती हैं इसी कारण उनके लिए नारियल को फोड़ना एक वर्जित कर्म मान कर निषिद्ध कर दिया गया। हालांकि प्रामाणिक रूप से ऐसा किसी भी धार्मिक ग्रंथ में नहीं लिखा गया है, न ही ऐसा किसी देवी-देवता द्वारा निर्देश दिया गया है। परन्तु सामाजिक मान्यताओं तथा विश्वास के चलते ही वर्तमान में हिंदू महिलाएं नारियल नहीं तोड़ती है।



Source: Patrika.com

सुबह-सुबह हमें सबसे पहले किसे देखना चाहिए, जानिए

अक्सर लोगों से कहते हुए सुना होगा कि दिन की शुरुआत बेहतर हो जाए तो पूरा दिन बन जाता है। लेकिन दिन की अच्छी शुरुआत के लिए कुछ अच्छे काम भी करने होते हैं। बहुत से लोग अपने दिन को बेहतर बनाने के लिए अपने कमरे में तरह-तरह के पोस्टर...या अपनी मेज पर किसी खास धार्मिक देवता की तस्वीर लगाते हैं जिन्हें वो सबसे पहले देखना चाहते हैं, ताकि उनका दिन बन जाए। वहीं कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो दिन में उठते ही सबसे पहले धरती मां के पैर छूते हैं और फिर बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद लेते हैं। माना जाता है कि ऐसा करने से लोगों पर ईश्वर की कृपा बनी रहती है। आज हम अपनी स्टोरी में आपको बताएंगे कि आपको सबह उठते ही सबसे पहले क्या देखना चाहिए।



सुबह उठकर सबसे पहले क्या देखें-

बिस्तर से उठने के बाद सबसे पहले अपने हाथों को देखना चाहिए। ऐसा करना बहुत ही अच्छा माना जता है और यह काम कुछ लोगों की नियमित दिनचर्या का हिस्सा भी होता है। हमें सबसे पहले अपना हाथ देखकर प्रात: स्मरण मंत्र बोलना चाहिए।

कराग्रे वसते लक्ष्मी, करमध्ये सरस्वती।
करमूले तु गोविन्द:, प्रभाते करदर्शनम्।।

क्या है श्लोक का अर्थ-

इस श्लोक का अर्थ है कि हमारे हाथ के अग्र भाग में लक्ष्मी और हाल के मूल में सरस्वती का वास है। यानी भगवान ने हमारे हाथों में इतनी ताकत दे रखी है कि हम लक्ष्मी अर्जित कर सकते हैं। इतना ही नहीं सरस्वती और लक्ष्मी जिसे हम अर्जित करते हैं उनमें समन्वय बनाने के लिए प्रभु स्वयं हाथ के मध्य में बैठे हैं। इसलिए हमें दिन की बेहतर शुरुआत के लिए सबसे पहले अपनी दोनों हथेलियों को जोड़कर देखना चाहिए।


Source: KhabarIndiaTV

ज़रूर जाने क्यूँ मानते हैं मकर संक्रांति -

हमारे देश में मकर संक्रांति का त्यौहार विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग नाम से मनाया जाता है। कहीं इसे मकर संक्रांति कहते हैं तो कहीं पोंगल लेकिन तमाम मान्यताओं के बाद इस त्यौहार को मनाने के पीछे का तर्क एक ही रहता है और वह है सूर्य की उपासना और दान।



सूर्य का मकर राशि में प्रवेश करना मकर-संक्रांति कहलाता है। संक्रांति के लगते ही सूर्य उत्तरायण हो जाता है। मान्यता है कि मकर-संक्रांति से सूर्य के उत्तरायण होने पर देवताओं का सूर्योदय होता है और दैत्यों का सूर्यास्त होने पर उनकी रात्रि प्रारंभ हो जाती है। उत्तरायण में दिन बड़े और रातें छोटी होती हैं। मकर संक्रांति को मनाने के पीछे बहुत सी पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं जो इस पर्व को मनाने के महत्व को सत्यापित करती हैं।

मकर संक्रांति से जुड़ी हुई पौराणिक कथाएं - कहा जाता है कि इस दिन भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाया करते हैं। शनिदेव चूंकि मकर राशि के स्वामी हैं, अतः इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है।

- यशोदा जी ने जब कृष्ण जन्म के लिए व्रत किया था तब सूर्य देवता उत्तरायण काल में पदार्पण कर रहे थे और उस दिन मकर संक्रांति थी। कहा जाता है तभी से मकर संक्रांति व्रत का प्रचलन हुआ।
- मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भागीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा उनसे मिली थीं। यह भी कहा जाता है कि गंगा को धरती पर लाने वाले महाराज भगीरथ ने अपने पूर्वजों के लिए इस दिन तर्पण किया था। उनका तर्पण स्वीकार करने के बाद इस दिन गंगा समुद्र में जाकर मिल गई थीं। इसलिए मकर संक्रांति पर गंगा सागर में मेला लगता है।
- महाभारत काल के महान योद्धा भीष्म पितामह ने भी अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही चयन किया था।



- इस दिन भगवान विष्णु ने असुरों का अंत कर युद्ध समाप्ति की घोषणा की थी|

श्रीराम का धरती मां से विनती की भरत के पैरों में पत्थर और कांटा न लगे -

एक बार जब प्रभु श्रीराम, लक्ष्मण व सीता जी के साथ चित्रकूट पर्वत की ओर जा रहे थे, तो वहां की राह बहुत ही पथरीली और कंटीली थी।तभी प्रभु श्रीराम के चरणों में एक कांटा चुभ गया। लेकिन वो नाराज नही हुए और न ही क्रोधित हुए बल्कि हाथ जोड़कर धरती मां से एक अनरुोध करने लगे।

श्रीराम बोले - माँ मेरी एक विनम्र प्रार्थना है आपसे ।
धरती माता बोली - प्रभु आज्ञा नही आदेश दीजिये मुझ दासी को।

'मां, मेरी बस यही विनती है की जब भरत मेरी  खोज में इस पथ से गुजरे, तो तुम नरम हो जाना। कुछ पल के लिए अपने आंचल के ये पत्थर और कांटे छुपा लेना। मुझे कांटा चुभा सो चुभा, पर मेरे भरत के पांव में आघात मत करना', विनम्र भाव से श्रीराम बोले ।

श्रीराम को यूं व्यग्र देखकर धरती माँ दंग रह गई।

धरती मां ने पूछा' -
भगवन्,  धृष्टता क्षमा हो, पर क्या भरत आपसे अधिक सुकुमार हैं ? जब आप इतनी सहजता से सब
सहन कर गए, तो क्या कुमार भरत नही कर पाएंगे?फिर उनको लेकर आपके मन में ऐसी व्याकुलता क्यों ?

श्रीराम  बोले' - 
नही नही... माता। आप मेरे कहने का अभिप्राय नही समझीं। भरत को यदि कांटा चुभा तो वह उसके पांव
को नही , उसके ह्रदय को चोट कर देगा।'

ह्रदय को चोट?  ऐसा क्यों प्रभु? ', धरती मां जिज्ञासा घुले स्वर में पूछी।

'अपनी पीडा स़े नही माँ बल्कि यह सोचकर की इसी पथरीली और कंटीली राह से मेरे भ्राता राम गुजरे होंगे और ये शलू उनके पगों में भी चुभे होंगे। मैया, मेरा भरत कल्पना में भी मेरी पीडा स़हन नही कर सकता इसलिए उसकी उपस्थिति में आप कमल पंखुड़ियों जैसी कोमल बन जाना...।'




सीख : इसीलिए कहा गया है की रिश्ते खून से नही,  परिवार से नही, समाज से नही, मित्रता से नही, व्यवहार से नही बनते, बल्कि सिर्फ और सिर्फ 'एहसास' से ही बनते और निभाए जाते हैं। जहां एहसास ही नही , आत्मीयता ही नही .. वहां अपनापन कहां से आएगा?



बालि की ताकत और शूरवीरता जानकार अचम्भित हो जायेंगे आप -

रामायण में यह भी उल्लेख आता है के बालि प्रतिदिन सूर्य को जल चढ़ाने पूर्व तट से पश्चिम तट और उत्तर से दक्षिण तटों में जाता था।

वानर राज बालि किष्किंधा का राजा और सुग्रीव का बड़ा भाई था। बालि का विवाह वानर वैद्यराज सुषेण की पुत्री तारा के साथ संपन्न हुआ था। तारा एक अप्सरा थी। बालि को तारा किस्मत से ही मिली थी।

एक कथा के अनुसार समुद्र मन्थन के दौरान चौदह मणियों में से एक अप्सराएँ थीं। उन्हीं अप्सराओं में से एक तारा थी। वालि और सुषेण दोनों मन्थन में देवतागण की मदद कर रहे थे। जब उन्होंने तारा को देखा तो दोनों में उसे पत्नी बनाने की होड़ लगी। वालि तारा के दाहिनी तरफ़ तथा सुषेण उसके बायीं तरफ़ खड़े हो गये। तब विष्णु ने फ़ैसला सुनाया कि विवाह के समय कन्या के दाहिनी तरफ़ उसका होने वाला पति तथा बायीं तरफ़ कन्यादान करने वाला पिता होता है। अतः वालि तारा का पति तथा सुषेण उसका पिता घोषित किये गये।

बालि के पिता का नाम वानरश्रेष्ठ 'ऋक्ष' था। बालि के धर्मपिता देवराज इन्द्र थे। बालि का एक पु‍त्र था जिसका नाम अंगद था। बालि गदा और मल्ल युद्ध में पारंगत था। उसमें उड़ने की शक्ति भी थी। धरती पर उसे सबसे शक्तिशाली माना जाता था, लेकिन उसमें साम्राज्य विस्तार की भावना नहीं थी। वह भगवान सूर्य का उपासक और धर्मपरायण था। हालांकि उसमें दूसरे कई दुर्गुण थे जिसके चलते उसको दुख झेलना पड़ा।



रामायण के अनुसार बालि अजीब सी शक्ति थी, उसे ब्रह्मा  वरदान दिया था की बालि जब भी रणभूमि में अपने दुश्मन का सामना करेगा तो उसके दुश्मन की आधी शक्ति क्षीण हो जाएगी और यह आधी शक्ति बालि को प्राप्त हो जाएगी। इस कारण से बालि लगभग अजेय था।

बालि के आगे रावण की एक नहीं चली थी। रामायण में ऐसा प्रसंग आता है कि एक बार जब वालि संध्यावन्दन के लिए जा रहा था तो आकाश से नारद मुनि जा रहे थे। वालि ने उनका अभिवादन किया तो नारद ने बताया कि वह लंका जा रहे हैं जहाँ लंकापति रावण ने देवराज इन्द्र को परास्त करने के उपलक्ष में भोज का आयोजन किया है। चञ्चल स्वभाव के नारद – जिन्हें सर्वज्ञान है – ने वालि से चुटकी लेने की कोशिश की और कहा कि अब तो पूरे ब्रह्माण्ड में केवल रावण का ही आधिपत्य है और सारे प्राणी, यहाँ तक कि देवतागण भी उसे ही शीश नवाते हैं। वालि ने कहा कि रावण ने अपने वरदान और अपनी सेना का इसतेमाल उनको दबाने में किया है जो निर्बल हैं लेकिन मैं उनमें से नहीं हूँ और आप यह बात रावण को स्पष्ट कर दें। सर्वज्ञानी नारद ने यही बात रावण को जा कर बताई जिसे सुनकर रावण क्रोधित हो गया। उसने अपनी सेना तैयार करने के आदेश दे डाले। नारद ने उससे भी चुटकी लेते हुये कहा कि एक वानर के लिए यदि आप पूरी सेना लेकर जायेंगे तो आपके सम्मान के लिए यह उचित नहीं होगा। रावण तुरन्त मान गया और अपने पुष्पक विमान में बैठकर वालि के पास पहुँच गया। वालि उस समय संध्यावन्दन कर रहा था। वालि की स्वर्णमयी कांति देखकर रावण घबरा गया और वालि के पीछे से वार करने की चेष्टा की। वालि अपनी पूजा अर्चना में तल्लीन था लेकिन फिर भी उसने उसे अपनी पूँछ से पकड़कर और उसका सिर अपने बगल में दबाकर पूरे विश्व में घुमाया। उसने ऐसा इसलिए किया कि संपूर्ण विश्व के प्राणी रावण को इस असहाय अवस्था में देखें और उनके मन से उसका भय निकल जाये। इसके पश्चात् रावण ने अपनी पराजय स्वीकार की और वालि की ओर मैत्री का हाथ बढ़ाया जिसे वालि ने स्वीकार कर लिया।

माया नामक असुर स्त्री के दो पुत्र थे — मायावी तथा दुंदुभि। दुंदुभि महिष रूपी असुर थे किष्किन्धा के द्वार पे जाकर वालि को द्वंद्व के लिए ललकारा। मदमस्त वालि ने पहले तो दंभी दुंदुभि को समझाने की कोशिश की परन्तु जब वह नहीं माना तो वालि द्वंद्व के लिए राज़ी हो गया और दुंदुभि को बड़ी सरलता से हराकर उसका वध कर दिया। इसके पश्चात् वालि ने दुंदुभि के निर्जीव शरीर को उछालकर एक ही झटके में एक योजन दूर फेंक दिया। शरीर से टपकती रक्त की बूंदें महर्षि मतङ्ग के आश्रम में गिरीं जो कि ऋष्यमूक पर्वत में स्थित था। क्रोधित मतङ्ग ने वालि को शाप दे डाला कि यदि वालि कभी भी उनके आश्रम के एक योजन के दायरे में आया तो वह मृत्यु को प्राप्त होगा।

Popular Posts