जानिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने भी भोलेनाथ को कांवर चढ़ाया था -

सावन माने रिमझिम फुहारों का मौसम और मेरे प्रभु भोलेनाथ का महीना। यही वह महीना है, जब भोलेनाथ, कैलाश से उतरकर शिवालयों में विराजमान होते हैं। सावन भर भोलेनाथ भक्तों की फरियाद सुनते हैं। सावन और शिव की चर्चा जब-जब की जाएगी, कांवर की भी बातें होंगी। सावन में शिव सुनते हैं, इसलिए भक्त कांवर लेकर शिवधामो की ओर चल पड़ते हैं।

कहते हैं कि पहले कांवरिया रावण थे। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने भी भोलेनाथ को कांवर चढ़ाया था। सावन के महीने में शिवालय गेरूआ वस्त्रधारियों के हर-हर महादेव के उद्घोष से गूंज जाता है। ऐसी मान्यता है कि भारत की पवित्र नदियों (गंगा) के जल से अभिषेक किए जाने से शिव प्रसन्न होकर भक्तों की मनोकामना पूर्ण करते हैं। संस्कृत के शब्द ‘कांवांरथी’ से बना है- कांवर। यह एक प्रकार की बहंगी है, जो बांस की फट्टी से बनाई जाती है। कांवर वह तब बनती है, जब फूल-माला, घंटी आर घुंघरू से सजे दोनों किनारों पर वैदिक अनुष्ठान के साथ गंगाजल का भार पिटारियों में रखा जाता है। धूप-दीप की खुशबू, मुख में ‘बोल बम’ का नारा, मन में ‘बाबा एक सहारा।’ कांवर उठाने वाले शिवभक्तों को कांवरिया कहते हैं।


कांवरियों के कई रूप और कांवर के कई प्रकार होते हैं। उनके तन पर सजनेवाला गेरूआ मन को वैराग्य का अहसास कराता है। ब्रह्मचर्य, शुद्ध विचार, सात्विक आहार और नैसर्गिक दिनचर्या कांवरियों को हलचल भरी दुनिया से कहीं दूर भक्ति-भाव के सागर किनारे ले जाते हैं। कांवर के कई प्रकारों में से ही एक प्रकार है – सामान्य कांवर। सामान्य कांवरिए कांवर यात्रा की अवधि में जब और जहां चाहे रुक कर विश्राम कर सकते हैं। विश्राम की अवधि में कांवर स्टैंड पर रखा जाता है, जिससे कांवर का स्पर्श जमीन से न हो सके। दूसरे प्रकार के भक्त ‘डाक कांवरिया’ कहलाते हैं। ये कांवर यात्रा के आरंभ से शिव के जलाभिषेक तक अनवरत चलते रहते हैं। बगैर रुके। शिवधाम तक की यात्रा एक निश्चित अवधि तय करते हैं। इस दौरान शरीर से उत्सर्जन की क्रियाएं तक वर्जित होती हैं। तीसरे प्रकार के भक्त खड़ा कांवर लेकर चलते हैं। इस दौरान उनकी मदद के लिए कोई-न-कोई सहयोगी उनके साथ चलता है। जब वे आराम करते हैं, तब सहयोगी अपने कंधे पर उनका कांवर लेकर कांवर को चलने के अंदाज में हिलाते-डुलाते रहते हैं। चौथे प्रकार के भक्त नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा दंड देते पूरी करते हैं। मतलब पूर्ण कांवर पथ की दूरी को अपने शरीर की लंबाई से लेटकर दांडी कांवरिया नापते हुए यात्रा पूरी करते हैं।

इस कलयुग में सत्युग का अगर आप अहसास करना चाहते हैं, तो सावन के महीने में कांवरिया पथ में पधारिए। कांवर मेला में सत्युग का वातावरण बना रहता है। आज दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, यूपी, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ व मध्य-प्रदेश से शिवभक्त कांवर मेले में शामिल होते हैं और हरिद्वार में जलाभिषेक करते हैं। दिल्ली से हरिद्वार के कांवर पथ के साथ-साथ देश के समस्त कांवर पथों पर देवाधिदेव महादेव का वास होता है। ऐसा कांवरिया मानते हैं। संपूर्ण कांवर पथ पर पूरब-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण भारत की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक एकता सावन आते ही जीवित हो उठती है। शिवभक्ति का यह सबसे बड़ा मैराथन है।

विष्णुसहस्रनाम - जाने श्री विष्णु के 1000 नामों की महिमा और लाभ -

भगवान विष्णु के 1000 नामों की महिमा अवर्णनीय है। इन नामों का संस्कृत रूप विष्णुसहस्रनाम के प्रतिरूप में विद्यमान है। विष्णुसहस्रनाम का पाठ करने वाले व्यक्ति को यश, सुख, ऐश्वर्य, संपन्नता, सफलता, आरोग्य एवं सौभाग्य प्राप्त होता है तथा मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। भगवान विष्णु के 1000 नाम जाने से पहले हमे ये जरूर जानना चाहिए की ये पहली बार किसने बताया और भगवान विष्णु के 1000 नाम क्या हैं ।

कुरुक्षेत्र युद्ध मे विनाश देख धर्मराज युधिष्ठिर विचलित हुए। बाणों की शय्या पर लेटे भीष्म भी अपने प्राण त्यागने की प्रतीक्षा कर रहे थे, उसी समय वेदव्यास और श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को समाकालीन सर्वोच्च ज्ञानी भीष्म से धर्म व नीति के विषय मे उपदेश लेने की प्रेरणा दी। अपने सभी भाई समेत कृष्ण को साथ लिए युधिष्ठिर पितामह भीष्म के पास पहुँच कर उनका नमन किया और धर्म व नीति के विषय मे विचार करते हुए प्रश्न किये। भीष्म का उत्तर ही यह सहस्रनाम(भगवान विष्णु के 1000 नाम) है।

युधिष्ठिर के प्रश्न है:

किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम्।
स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् ॥
अर्थ :
सभी लोकों में सर्वोत्तम देवता कौन है?
संसारी जीवन का लक्ष्य क्या है?
किसकी स्तुति व अर्चन से मानव का कल्याण होता है?
सबसे उत्तम धर्म कौनसा है?
किसके नाम जपने से जीव को संसार के बंधन से मुक्ति मिलती है?
इसके उत्तर में भीष्मजी ने कहा,"जगत के प्रभु, देवों के देव, अनंत व पुरूषोत्तम विष्णु के सहस्रनाम के जपने से, अचल भक्ति से, स्तुति से, आराधना से, ध्यान से, नमन से मनुष्य को संसार के बंधन से मुक्ति मिलती है। यही सर्वोत्तम धर्म है।"

पेश है भीष्म का उत्तर जो की भगवान विष्णु के 1000 नाम-


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नम:

ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः ।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः ।। 1 ।।

पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमं गतिः।
अव्ययः पुरुष साक्षी क्षेत्रज्ञो अक्षर एव च ।। 2 ।।

योगो योग-विदां नेता प्रधान-पुरुषेश्वरः ।
नारसिंह-वपुः श्रीमान केशवः पुरुषोत्तमः ।। 3 ।।

सर्वः शर्वः शिवः स्थाणु: भूतादि: निधि: अव्ययः ।
संभवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभु: ईश्वरः ।। 4 ।।

स्वयंभूः शम्भु: आदित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः ।
अनादि-निधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ।। 5 ।।

अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभो-अमरप्रभुः ।
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ।। 6 ।।

अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।
प्रभूतः त्रिककुब-धाम पवित्रं मंगलं परं ।। 7।।



ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः ।
हिरण्य-गर्भो भू-गर्भो माधवो मधुसूदनः ।। 8 ।।

ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः ।
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृति: आत्मवान ।। 9 ।।

सुरेशः शरणं शर्म विश्व-रेताः प्रजा-भवः ।
अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ।। 10 ।।

अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादि: अच्युतः ।
वृषाकपि: अमेयात्मा सर्व-योग-विनिःसृतः ।। 11 ।।

वसु:वसुमनाः सत्यः समात्मा संमितः समः ।
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ।। 12 ।।

रुद्रो बहु-शिरा बभ्रु: विश्वयोनिः शुचि-श्रवाः ।
अमृतः शाश्वतः स्थाणु: वरारोहो महातपाः ।। 13 ।।

सर्वगः सर्वविद्-भानु:विष्वक-सेनो जनार्दनः ।
वेदो वेदविद-अव्यंगो वेदांगो वेदवित् कविः ।। 14 ।।

लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृता-कृतः ।
चतुरात्मा चतुर्व्यूह:-चतुर्दंष्ट्र:-चतुर्भुजः ।। 15 ।।

भ्राजिष्णु भोजनं भोक्ता सहिष्णु: जगदादिजः ।
अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ।। 16 ।।

उपेंद्रो वामनः प्रांशु: अमोघः शुचि: ऊर्जितः ।
अतींद्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ।। 17 ।।

वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः।
अति-इंद्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः ।। 18 ।।

महाबुद्धि: महा-वीर्यो महा-शक्ति: महा-द्युतिः।
अनिर्देश्य-वपुः श्रीमान अमेयात्मा महाद्रि-धृक ।। 19 ।।

महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः ।
अनिरुद्धः सुरानंदो गोविंदो गोविदां-पतिः ।। 20 ।।

मरीचि:दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः ।
हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः ।। 21 ।।

अमृत्युः सर्व-दृक् सिंहः सन-धाता संधिमान स्थिरः ।
अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा ।। 22 ।।


गुरुःगुरुतमो धामः सत्यः सत्य-पराक्रमः ।
निमिषो-अ-निमिषः स्रग्वी वाचस्पति: उदार-धीः ।। 23 ।।

अग्रणी: ग्रामणीः श्रीमान न्यायो नेता समीरणः ।
सहस्र-मूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात ।। 24 ।।

आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः सं-प्रमर्दनः ।
अहः संवर्तको वह्निः अनिलो धरणीधरः ।। 25 ।।

सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृक्-विश्वभुक्-विभुः ।
सत्कर्ता सकृतः साधु: जह्नु:-नारायणो नरः ।। 26 ।।

असंख्येयो-अप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्ट-कृत्-शुचिः ।
सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः ।। 27।।

वृषाही वृषभो विष्णु: वृषपर्वा वृषोदरः ।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुति-सागरः ।। 28 ।।

सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेंद्रो वसुदो वसुः ।
नैक-रूपो बृहद-रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः ।। 29 ।।

ओज: तेजो-द्युतिधरः प्रकाश-आत्मा प्रतापनः ।
ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मंत्र:चंद्रांशु: भास्कर-द्युतिः ।। 30 ।।

अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिंदुः सुरेश्वरः ।
औषधं जगतः सेतुः सत्य-धर्म-पराक्रमः ।। 31 ।।

भूत-भव्य-भवत्-नाथः पवनः पावनो-अनलः ।
कामहा कामकृत-कांतः कामः कामप्रदः प्रभुः ।। 32 ।।

युगादि-कृत युगावर्तो नैकमायो महाशनः ।
अदृश्यो व्यक्तरूपश्च सहस्रजित्-अनंतजित ।। 33 ।।

इष्टो विशिष्टः शिष्टेष्टः शिखंडी नहुषो वृषः ।
क्रोधहा क्रोधकृत कर्ता विश्वबाहु: महीधरः ।। 34 ।।

अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः ।
अपाम निधिरधिष्टानम् अप्रमत्तः प्रतिष्ठितः ।। 35 ।।

स्कन्दः स्कन्द-धरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः ।
वासुदेवो बृहद भानु: आदिदेवः पुरंदरः ।। 36 ।।

अशोक: तारण: तारः शूरः शौरि: जनेश्वर: ।
अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ।। 37 ।।

पद्मनाभो-अरविंदाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत ।
महर्धि-ऋद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुड़ध्वजः ।। 38 ।।

अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः ।
सर्वलक्षण लक्षण्यो लक्ष्मीवान समितिंजयः ।। 39 ।।

विक्षरो रोहितो मार्गो हेतु: दामोदरः सहः ।
महीधरो महाभागो वेगवान-अमिताशनः ।। 40 ।।


उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः ।
करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः ।। 41 ।।

व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो-ध्रुवः ।
परर्रद्वि परमस्पष्टः तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः ।। 42 ।।

रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयो-अनयः ।
वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठ: धर्मो धर्मविदुत्तमः ।। 43 ।।

वैकुंठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः ।
हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ।। 44।।

ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः ।
उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्व-दक्षिणः ।। 45 ।।

विस्तारः स्थावर: स्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम ।
अर्थो अनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः ।। 46 ।।

अनिर्विण्णः स्थविष्ठो-अभूर्धर्म-यूपो महा-मखः ।
नक्षत्रनेमि: नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः ।। 47 ।।

यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः ।
सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमं ।। 48 ।।

सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत ।
मनोहरो जित-क्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ।। 49 ।।

स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत ।
वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ।। 50 ।।

धर्मगुब धर्मकृद धर्मी सदसत्क्षरं-अक्षरं ।
अविज्ञाता सहस्त्रांशु: विधाता कृतलक्षणः ।। 51 ।।

गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः ।
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद गुरुः ।। 52 ।।

उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः ।
शरीर भूतभृद्भोक्ता कपींद्रो भूरिदक्षिणः ।। 53 ।।

सोमपो-अमृतपः सोमः पुरुजित पुरुसत्तमः ।
विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्वतां पतिः ।। 54 ।।

जीवो विनयिता-साक्षी मुकुंदो-अमितविक्रमः ।
अम्भोनिधिरनंतात्मा महोदधिशयो-अंतकः ।। 55 ।।

अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः ।
आनंदो नंदनो नंदः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ।। 56 ।।

महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः ।
त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाश्रृंगः कृतांतकृत ।। 57 ।।

महावराहो गोविंदः सुषेणः कनकांगदी ।
गुह्यो गंभीरो गहनो गुप्तश्चक्र-गदाधरः ।। 58 ।।

वेधाः स्वांगोऽजितः कृष्णो दृढः संकर्षणो-अच्युतः ।
वरूणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः ।। 59 ।।

भगवान भगहानंदी वनमाली हलायुधः ।
आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णु:-गतिसत्तमः ।। 60 ।।

सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः ।
दिवि:स्पृक् सर्वदृक व्यासो वाचस्पति:अयोनिजः ।। 61 ।।

त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक ।
संन्यासकृत्-छमः शांतो निष्ठा शांतिः परायणम ।। 62 ।।

शुभांगः शांतिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ।। 63 ।।

अनिवर्ती निवृत्तात्मा संक्षेप्ता क्षेमकृत्-शिवः ।
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतां वरः ।। 64 ।।

श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः ।
श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमान्-लोकत्रयाश्रयः ।। 65 ।।

स्वक्षः स्वंगः शतानंदो नंदिर्ज्योतिर्गणेश्वर: ।
विजितात्मा विधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः ।। 66 ।।

उदीर्णः सर्वत:चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः ।
भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः ।। 67 ।।

अर्चिष्मानर्चितः कुंभो विशुद्धात्मा विशोधनः ।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ।। 68 ।।

कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः ।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ।। 69 ।।

कामदेवः कामपालः कामी कांतः कृतागमः ।
अनिर्देश्यवपुर्विष्णु: वीरोअनंतो धनंजयः ।। 70 ।।

ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृत् ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः ।
ब्रह्मविद ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ।। 71 ।।

महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः ।
महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ।। 72 ।।

स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः ।
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ।। 73 ।।

मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः ।
वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः ।। 74 ।।

सद्गतिः सकृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः ।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः ।। 75 ।।

भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयो-अनलः ।
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरो-अथापराजितः ।। 76 ।।

विश्वमूर्तिमहार्मूर्ति:दीप्तमूर्ति: अमूर्तिमान ।
अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः ।। 77 ।।

एको नैकः सवः कः किं यत-तत-पद्मनुत्तमम ।
लोकबंधु: लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः ।। 78 ।।

सुवर्णोवर्णो हेमांगो वरांग: चंदनांगदी ।
वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरऽचलश्चलः ।। 79 ।।



अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक ।
सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः ।। 80 ।।

तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः ।
प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकश्रृंगो गदाग्रजः ।। 81 ।।

चतुर्मूर्ति: चतुर्बाहु:श्चतुर्व्यूह:चतुर्गतिः ।
चतुरात्मा चतुर्भाव:चतुर्वेदविदेकपात ।। 82 ।।

समावर्तो-अनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः ।
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ।। 83 ।।

शुभांगो लोकसारंगः सुतंतुस्तंतुवर्धनः ।
इंद्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ।। 84 ।।

उद्भवः सुंदरः सुंदो रत्ननाभः सुलोचनः ।
अर्को वाजसनः श्रृंगी जयंतः सर्वविज-जयी ।। 85 ।।

सुवर्णबिंदुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः ।
महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधः ।। 86 ।।

कुमुदः कुंदरः कुंदः पर्जन्यः पावनो-अनिलः ।
अमृतांशो-अमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः ।। 87 ।।

सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः ।
न्यग्रोधो औदुंबरो-अश्वत्थ:चाणूरांध्रनिषूदनः ।। 88 ।।

सहस्रार्चिः सप्तजिव्हः सप्तैधाः सप्तवाहनः ।
अमूर्तिरनघो-अचिंत्यो भयकृत्-भयनाशनः ।। 89 ।।

अणु:बृहत कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान् ।
अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ।। 90 ।।

भारभृत्-कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः ।
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ।। 91 ।।

धनुर्धरो धनुर्वेदो दंडो दमयिता दमः ।
अपराजितः सर्वसहो नियंता नियमो यमः ।। 92 ।।

सत्त्ववान सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः ।
अभिप्रायः प्रियार्हो-अर्हः प्रियकृत-प्रीतिवर्धनः ।। 93 ।।

विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग विभुः ।
रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः ।। 94 ।।

अनंतो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः ।
अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकधिष्ठानमद्भुतः ।। 95।।


सनात्-सनातनतमः कपिलः कपिरव्ययः ।
स्वस्तिदः स्वस्तिकृत स्वस्ति स्वस्तिभुक स्वस्तिदक्षिणः ।। 96 ।।

अरौद्रः कुंडली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः ।
शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः ।। 97 ।।

अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणां वरः ।
विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ।। 98 ।।

उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः ।
वीरहा रक्षणः संतो जीवनः पर्यवस्थितः ।। 99 ।।

अनंतरूपो-अनंतश्री: जितमन्यु: भयापहः ।
चतुरश्रो गंभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ।। 100 ।।

अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मी: सुवीरो रुचिरांगदः ।
जननो जनजन्मादि: भीमो भीमपराक्रमः ।। 101 ।।

आधारनिलयो-धाता पुष्पहासः प्रजागरः ।
ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ।। 102 ।।

प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत प्राणजीवनः ।
तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्यु जरातिगः ।। 103 ।।

भूर्भवः स्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः ।
यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञांगो यज्ञवाहनः ।। 104 ।।

यज्ञभृत्-यज्ञकृत्-यज्ञी यज्ञभुक्-यज्ञसाधनः ।
यज्ञान्तकृत-यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ।। 105 ।।

आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः ।
देवकीनंदनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ।। 106 ।।

शंखभृन्नंदकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः ।
रथांगपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः ।। 107 ।।

सर्वप्रहरणायुध ॐ नमः इति।

वनमालि गदी शार्ङ्गी शंखी चक्री च नंदकी ।
श्रीमान् नारायणो विष्णु: वासुदेवोअभिरक्षतु ।

रावण की राक्षस सेना के बारे में पढ़ के दंग हो जायेंगे आप -


रावण की सेना लाखों से ज्यादा करोड़ो की संख्या में थी, इसके बावजूद भी सिर्फ वानरों की सेना के सहारे ही प्रभु राम ने सिर्फ आठ दिन में ही युद्ध समाप्त कर रावण का वध किया. वो आठ दिन राम सेना के लिए कितने भारी थे उसके कई उदहारण दिए हैं -



रावण की सेना में में ऐसे अदम्य बलवान और पराक्रमी राक्षस  योद्धा थे जिन्हे भगवान् की सिवाय किसी और मनुष्य का हारा पाना नामुमकिन सा था इसलिए भगवान विष्णु के साथ भगवान् शिव के ग्यारहवें अंश हनुमान जी और बहुत से देवताओं के अंश ने जन्म लिया तथा हर प्रकार से मदद की।

रावण की सेना में उसके प्रतापी सात पुत्र और कई भाई सेना नायक थे इतना ही नहीं रावण के कहने पर उसके भाई अहिरावण ने श्री राम और लक्ष्मण का छल से अपहरण कर मारने की कोशिश की थी. रावण स्वयं दशग्रीव था और उसके नाभि में अमृत होने के कारण लगभग अमर था।

रावण का पुत्र मेघनाद ( जन्म के समय रोने की नहीं बल्कि मुख से बदलो की गरज की आवाज आई थी) को स्वयं ब्रह्मा ने इंद्र को प्राण दान देने पर इंद्रजीत का नाम दिया था. ब्रह्मा ने उसे वरदान भी मांगने बोला तब उसने अमृत्व माँगा पर वो न देके ब्रह्मा ने उसे युद्ध के समय अपनी कुलदेवी का अनुष्ठान करने की सलाह दी, जिसके जारी रहते उसकी मृत्यु असंभव थी.

रावण का पुत्र अतिक्या जो की अदृश्य होकर युद्ध करता था, रावण का भाई कुम्भकरण जिसे स्वयं नारद मुनि ने दर्शन शाश्त्र की शिक्षा दी थी, वो अधर्म के पक्ष में है जानकार भी भाई के मान के लिए अपनी आहुति दी थी.

हनुमान जी ने रावण की सेना को इस तरह बताया -

10,000 सैनिक पूर्वी द्वार पे तैनात हैं
100,000 सैनिक, चतुरंगिणी सेना के साथ दक्षिणी द्वार पे तैनात है
1,000,000 सेना जो हर अस्त्रों से लड़ने में निपुण हैं वो पश्चिमी द्वार पे खड़े हैं 
1,000,000 से ज्यादा राक्षस सेना जो रथ और घोड़े वाली है, उत्तरी द्वार पे तैनात हैं 
1,000,000 राक्षस सेना जो पूरी लंका में हर तरफ तैनात हैं 


रावण के भाई -

कुम्भकर्ण - राम जी ने मारा
खर - राम जी ने मारा
दूषण - राम जी ने मारा
अहिरावण - हनुमान जी ने मारा




रावण के सात शूरवीर पुत्र -

मेघनाद - रावण का सबसे बड़ा पुत्र जिसे इंद्रजीत कहा गया, लक्ष्मण जी ने मारा
प्रहस्त - सुग्रीव के कई बलशाली योद्धाओं को मारा, युद्ध के पहले दिन ही लक्ष्मण जी ने मारा
नरान्तक - हनुमान जी ने मारा
देवान्तक - हनुमान जी ने मारा
अतिकाय - लक्ष्मण जी ने मारा
त्रिशिरा - राम जी ने मारा
अक्षयकुमार - हनुमान जी ने मारा

कुम्भकरण के दो पुत्र -

कुम्भ - सुग्रीव ने मारा
निकुम्भ - हनुमान जी ने मारा

खर के दो पुत्र -

मकराक्ष - राम जी ने मारा
विशालाक्ष -

अन्य -


अकम्पना - हनुमान जी ने मारा
अशनिप्रभ - द्विविद ने मारा
धूम्राक्ष -  हनुमान जी ने मारा
दुर्धष - राम जी मारा
जाम्बाली - हनुमान जी ने मारा
महाकाय - राम जी  ने मारा
महापार्श्वा - अंगद ने मारा
महोदर -  सुग्रीव ने मारा
प्रजनघ - अंगद ने मारा
नगपुत्रा - अंगद ने मारा
सारण - राम जी ने मारा
समुन्नत  - दुर्मुख ने मारा
शार्दूल - जिसने बताया, राम की सेना समुद्र पार करके आ गई है
शोनिताक्ष  - अंगद ने मारा
शुक - राम जी ने मारा
विद्युन्माली - सुषेण  ने मारा
विरूपाक्ष - लक्ष्मण जी ने मारा
यज्ञशत्रु - राम जी ने मारा
मत्त
अग्निकेतु
दुर्मुख
कुम्भानु
महानाद
मत्त
मित्रघन
पिशाच
प्रघास
प्रतापन
रभास
रश्मिकेतु
सन्मुख
वज्रदंष्ट्र
वज्रमुस्ति
विकट
यज्ञकोप
यूपाक्ष

जैसे महापराक्रमी दैत्यों और राक्षसों को मारकर प्रभु श्री राम ने अधर्म पे धर्म  की जीत की ।

सीताजी को स्पर्श करता रावण तो हो जाता भस्म, जानिए -

कहा जाता है कि एक बार जब रम्भा कुबेर-पुत्र के यहाँ जा रही थी तो कैलाश की ओर जाते हुए रावण ने की नजर उस सुन्दर औरत पर पड़ी जो की असल में एक अप्सरा रम्भा ही मानवरूप में जन्मी हुई थी. रावण की कामवासना जाग उठी और वो रम्भा से जबरदस्ती करने लगा. उसी समय रम्भा ने रावण को अपना परिचय भी दिया की वो मेरे साथ दुष्कर्म न करे में तुम्हारी बहु हूँ.



रावण कैकसी और ऋषि विश्र्व का पुत्र था, कैकसी एक राक्षसी थी, विश्रवा के एक और पुत्र पहले से थे जो की कुबेर थे.कुबेर के पुत्र नलकुबेर थे जिनकी पत्नी थी रम्भा. रम्भा द्वारा परिचय देने के बाद भी रावण ना रुका और उसने अपनी ही बहु के साथ दुष्कर्म को अंजाम दिया.


रम्भा के साथ इस कुकृत्य के बाद कुबेर के पुत्र नलकुबेर ने रावण को श्राप दिया की अगर तुमने किसी और महिला के साथ ऐसा कुकर्म करने की चेष्टा भी की तो तुम्हारे दसो सर विस्फोट से उड़ जायेंगे. रावण को बाद में अपनी भूल का एहसास हुआ पर तब तक देर हो चुकी थी, उसी श्राप के कारण रावण सीता जी  से जबरदस्ती नहीं कर पाया था.



Source: therednews.com

लक्ष्मण का धर्म संकट- जब बताना पड़ा राम-सीता में किसके चरण हैं ज़्यादा सुंदर -

बात उन दिनों की है जब भगवान श्रीराम अपने 14 वर्षों के वनवास के दौरान चित्रकूट में थे। भगवान राम एवं माता सीता कुटिया के बाहर बैठे हुए थे।

तभी श्रीराम ने कहा कि लक्ष्मण यहां आओ मेरे और सीता के बीच एक झगड़ा हो गया है। इसलिए तुम न्याय करो। लक्ष्मण जी मान गए। तब श्रीराम-' मैं कहता हूं कि मेरे चरण सुंदर हैं। सीता कहती हैं उनके चरण सुंदर हैं। तुम दोनों के चरणों की पूजा करते हो, अब तुम ही फैसला करो कि किसके चरण सुंदर हैं।



लक्ष्मणजी बोले आप मुझे इस धर्म संकट में मत डालिए। तब श्रीराम ने समझाया कि तुम बैरागी हो। निर्भय होकर कहो। किसके चरण सुंदर हैं। राम के चरणों को दिखाते हुए लक्ष्मणजी बोले कि माता, इन चरणों से अधिक आपके चरण सुंदर हैं। इतना कहते हुए लक्ष्मण जी चुप हो गए और माता सीता खुश हो गई ।

इस पर लक्ष्मण जी बोले माता अधिक खुश मत होना क्यूंकि भगवान राम के चरण हैं, तभी आपके चरणों की कीमत है। इनके चरण न हों तो आपके चरण सुंदर नहीं लग सकते। अब रामजी जो परम ज्ञानी हैं वो खुश हो गए और लक्ष्मण की मंशा को समझ रहे हैं ।

तब लक्ष्मणजी फिर बोले कि आप दोनों को खुश होने की जरूरत नहीं। आप दोनों के चरणों के अलावा भी एक चरण हैं जिसके कारण ही आपके चरणों की पूजा होती है यानी आचरण। आचरण की कोई कीमत नहीं। महराज, आपके चरण सुंदर हैं तो उसका कारण आपका महान आचरण है।

संक्षेप में

यदि व्यक्ति के आचरण अच्छे हों तो उसका तन और मन दोनों ही सुंदर होता है और वह संसार में अपने नाम की अमिट छाप छोड़ जाता है।




Source: naidunia.jagran.com



नन्ही गिलहरी का रामसेतु मे सहयोग सुनके भावविभोर हो जाएँगे आप, ज़रूर पढ़ें -

जब पूरी सेना रामसेतु बनाने के कार्य व्यस्त थी,  उसी समय लक्ष्मण ने भगवान राम को काफी देर तक एक ही दिशा में निहारते हुए देख पूछा भैया आप क्या देख रहें इतनी देर से ?

भगवान राम ने इशारा करते हुए बताया कि वो देखो लक्ष्मण एक गिलहरी बार – बार समुद्र के किनारे जाती है और रेत पर लोटपोट करके रेत को अपने शरीर पर चिपका लेती है। जब रेत उसके शरीर पर चिपक जाता है फिर वह सेतु पर जाकर अपना सारा रेत सेतु पर झाड़ आती है। वह काफी देर से यही कार्य कर रही है। लक्ष्मण जी बोले प्रभु वह समुन्द्र में क्रीड़ा का आनंद ले रही है ओर कुछ नहीं।




भगवान राम ने कहा, नहीं लक्ष्मण तुम उस गिलहरी के भाव को समझने का प्रयास करो। चलो आओ उस गिलहरी से ही पूछ लेते हैं की वह क्या कर रही है।  दोनों भाई उस गिलहरी के निकट गए। भगवान राम ने गिलहरी से पूछा की तुम क्या कर रही हो ? गिलहरी ने जवाब दिया कि कुछ भी नहीं प्रभु बस इस पुण्य कार्य में थोड़ा बहुत योगदान दे रही हूँ। भगवान राम को उत्तर देकर गिलहरी फिर से अपने कार्य के लिए जाने लगी, तो लक्ष्मण जी उसे टोकते हुए बोले की तुम्हारे रेत के कुछ कण डालने से क्या होगा ?


गिलहरी बोली की आप सत्य कह रहे हैं। में सृष्टि की इतनी लघु प्राणी होने के कारण इस महान कार्य हेतु कर भी क्या सकती हूँ। मेरे कार्य का मूल्यांकन भी क्या होगा। प्रभु में यह कार्य किसी आकांक्षा से नहीं कर रही। यह कार्य तो राष्ट्र कार्य है, धर्म की अधर्म पर जीत का कार्य है। धर्म कार्य किसी एक व्यक्ति अथवा वर्ग का नहीं अपितु योग्यता अनुसार सम्पूर्ण समाज का होता है। जितना कार्य वह कर सके नि:स्वार्थ भाव से समाज को धर्म हित का कार्य करना चाहिए। मेरा यह कार्य आत्म संतुष्टि के लिए है। हाँ मुझे इस बात का खेद आवश्य है कि में सामर्थ्यवान एवं शक्तिशाली प्राणियों कि भाँति सहयोग नहीं कर पा रही।





भगवान राम गिलहरी की बात सुनकर भाव विभोर हो उठे। भगवान राम ने उस छोटी सी गिलहरी को अपनी हथेली पर बैठा लिया और उसके शरीर पर प्यार से हाथ फेरने लगे। भगवान राम का स्पर्श पाते ही गिलहरी का जीवन धन्य हो गया।हमारी मातृभूमि की सेवा का कार्य भी पुनीत राष्ट्रीय कार्य है। इस कार्य में हमारे समाज के प्रत्येक नागरिक का योगदान आवश्य होना चाहिए।





Source: hindvicharak.in

जानिए पूरी कहानी क्यूँ करते हैं शनिवार को हनुमान जी की पूजा?

नवग्रहों में सबसे क्रूर ग्रह शनि देव को माना जाता  है की जिस पर नजर पड़ जाए, उसका जीवन नरक होने लगता  है। काफी कोशिशों  के बाद भी काम बनते नहीं,  दुख काटे कटते नहीं और ऐसा लगता है जीवन से खुशियां रूठ गयी हों। यही लक्षण हैं शनि की दशा के, उनके प्रकोप के, लेकिन बजरंगबली का नाम लेने और उनकी पूजा करने से आप इन तमाम समस्याओं से मुक्ति पा सकते हैं. अब ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर शनिवार को शनिदेव संग पवनपुत्र की भी पूजा करने से ऐसा क्यों होता है, क्या है कहानी क्यों ऐसा विधान माना गया है।




इस सवाल का जवाब त्रेतायुग में छिपा हुआ है, कहानी उस समय की है जब माता सीता को ढूढते हुए हनुमान जी लंका पहुंचे थे, हनुमान जी जब पूरी लंका में  घूम घूम कर लंकादहन कर रहे थे तो उन्होंने एक कारागार में शनि देव को उल्टा लटके हुए देखा। जब हनुमान ने उनसे इसका कारण पूछा तो शनिदेव ने बताया कि रावण ने अपने योग बल से उन्हें पराजित करके लंका में कैद कर रखा है, तब हनुमान जी ने शनिदेव को रावण की कैद से मुक्ति दिलायी।





इससे प्रसन्न होकर शनिदेव ने हनुमान से वरदान मांगने को कहा, तब बजरंगबली ने शनिदेव से कहा कि वो सब जो उनका प्रिय हो, जो उनकी आराधना करे आप कभी भी उसे परेशान नहीं करेंगे और तभी से शनिवार को हनुमान जी की पूजा की परंपरा शुरू हो गई।




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