Ramanand Sagar’s Ramayan Episodes 41 - 60

 रामानंद सागर कृत सम्पूर्ण रामायण

Ramanand Sagar’s Ramayan: All Episodes



रामायण Episode 41:
राम की सुग्रीव पर नाराज़गी | लक्ष्मण जी का कोप | सीताजी की खोज में वानरों |




रामायण Episode 42:
तपस्विनी के दर्शन | समुद्र लाँघने का परामर्श | हनुमान्‌जी को बल याद दिलाना |




रामायण Episode 43:
हनुमान्‌जी का लंका को प्रस्थान | सुरसा से भेंट | लंकिनी वध | लंका में प्रवेश |





रामायण Episode 44:
रावण का सीताजी को भयभीत करना| सीता-हनुमान्‌ संवाद




रामायण Episode 45:
अशोक वाटिका विध्वंस |अक्षय कुमार वध | मेघनाद का हनुमान्‌ को नागपाश में बाँधना




रामायण Episode 46:
हनुमान्‌-रावण संवाद | लंकादहन|




रामायण Episode 47:
हनुमान का सीताजी से चूड़ामणि पाना | समुद्र पार लौटना | राम-हनुमान्‌ संवाद |



रामायण Episode 48:
श्रीराम का वानरों की सेना के साथ चलकर समुद्र तट पर पहुँचना|



रामायण Episode 49:
रावण को विभीषण का समझाना | विभीषण का अपमान|




रामायण Episode 50:
विभीषण का भगवान्‌ श्री रामजी की शरण के लिए प्रस्थान | शरण प्राप्ति|




रामायण Episode 51:
समुद्र पार करने के लिए विचार | श्री रामजी द्वारा वरुण देव उपासना|




रामायण Episode 52:
समुद्र पर रामजी का क्रोध | समुद्र की विनती | नल-नील द्वारा पुल बनाने का सुझाव|




रामायण Episode 53:
नल-नील द्वारा पुल बाँधना | श्री रामेश्वर की स्थापना | सेना सहित समुद्र पार उतरना|




रामायण Episode 54:
राम के बाण से रावण के मुकुट-छत्रादि गिरना | शूक और सारण का पकड़ा जाना |




रामायण Episode 55:
सुग्रीव और रावण का मल्ल युद्ध | मन्दोदरी का रावण को समझाना |




रामायण Episode 56:
अंगदजी का लंका जाना | रावण की सभा में अंगद-रावण संवाद |





रामायण Episode 57:
अंगद की चुनौती | माल्यवान का रावण को समझाना |




रामायण Episode 58:
मन्दोदरी का रावण को समझाना | अंगद-राम संवाद | युद्धारम्भ




रामायण Episode 59:
प्रहस्त, र्दुर्मुख और मकराक्ष वध | रावण की स्वयं युद्धभूमि में जाना





रामायण Episode 60:
राम रावण के बीच प्रथम संग्राम। रावण का कुम्भकरण को जगाने का आदेश।









Ramanand Sagar Ramayan Episodes 21 to 40

 रामानंद सागर कृत सम्पूर्ण रामायण

Ramanand Sagar’s Ramayan – All Episodes




रामायण Episode 21:
भरत-शत्रुघ्न का आगमन और शोक | भरत-कौशल्या संवाद 




रामायण Episode 22:
राजा दशरथ की अन्त्येष्टि | वशिष्ठ-भरत संवाद |




रामायण Episode 23:
भरत-शत्रुघ्न का वन गमन | भरत-निषाद मिलन | लक्ष्मणजी का क्रोध | राम भरत मिलाप |




रामायण Episode 24:
राम-लक्ष्मण द्वारा दशरथ की अन्त्येष्टि | राम-भरतादि संवाद




रामायण Episode 25:
जनक-वशिष्ठादि, राम-भरत-संवाद | पादुका प्रदान | भरत की बिदाई ।




रामायण Episode 26:
भरत का अयोध्या लौटना | पादुका स्थापना | नन्दिग्राम में निवास |




रामायण Episode 27:
सीता-अनसूया मिलन | पतिव्रत धर्म का ज्ञान | विराध वध | शरभंग प्रसंग




रामायण Episode 28:
राक्षस वध की प्रतिज्ञा करना | सुतीक्ष्णजी का प्रेम | महर्षि अगस्त्य का व्याख्यान




रामायण Episode 29:
अगस्त्य मिलन | जटायु मिलन | पंचवटी निवास | शूर्पणखा की कथा




रामायण Episode 30:
शूर्पणखा का खर-दूषण के पास जाना | खर-दूषणादि वध | रावण द्वारा शिव तांडव स्तोत्र |




रामायण Episode 31:
शूर्पणखा का रावण के पास जाना | मारीच प्रसंग




रामायण Episode 32:
स्वर्णमृग रूप मारीच का मारा जाना |लक्ष्‍मण रेखा | सीताहरण | जटायु-रावण युद्ध




रामायण Episode 33:
राम-लक्ष्मण सीता की खोज | जटायु का अंतिम संस्कार | अशोक वाटिका में सीताजी




रामायण Episode 34:
कबन्ध उद्धार | शबरी राम मिलन | शबरी पर कृपा |




रामायण Episode 35:
रामजी हनुमानजी मिलन | राम-लक्ष्मण को कंधे पर लेकर हनुमान सुग्रीव के पास लाए |




रामायण Episode 36:
श्री राम-सुग्रीव की मित्रता | सुग्रीव श्री राम को सीता माता की पोटली दिखाई |




रामायण Episode 37:
सुग्रीव का दुःख सुनाना | बालि वध की प्रतिज्ञा | रामजी का मित्र लक्षण वर्णन |




रामायण Episode 38:
बालि-सुग्रीव युद्ध | बालि उद्धार | तारा का विलाप |




रामायण Episode 39:
बाली का अंतिम संस्कार |




रामायण Episode 40:
सुग्रीव का राज्याभिषेक | अंगद को युवराज पद | सुग्रीव राजोल्लास में तल्लीन |






Ramanand Sagar’s Ramayan Episode 1 to 20

 रामानंद सागर कृत सम्पूर्ण रामायण

Ramanand Sagar’s Ramayan – All Episodes

डॉ रामानंद सागर द्वारा निर्देशित रामायण एक भारतीय टेलीविजन श्रृंखला है जो इसी नाम के प्राचीन भारतीय संस्कृत महाकाव्य पर आधारित है। यह श्रृंखला मूल रूप से 25 January 1987 और 31 July 1988 के बीच दूरदर्शन पर प्रसारित की गयी थी। यह श्रृंखला मुख्य रूप से श्री गोस्वामी तुलसीदास रचित “रामचरितमानस” और वाल्मीकि रचित “रामायण” पर आधारित है। सम्पूर्ण रामायण रामानंद सागर के सारे लिंक इस पेज पर नीचे मौजूद हैं। 

Ramayan is a successful Indian television series created written and directed by Dr. Ramanand Sagar. All 78-episodes aired weekly on Doordarshan from Jan 25 1987 to Jul 31 1988 on Sundays. These series are based on shri Goswami Tulsidas's Shri Ramcharitmanas and Valmiki's Ramayan. All Ramayan's episode video links are added below:


रामायण Episode 1:
पृथ्वी और देवतादि की करुण पुकार | राजा दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ व श्री राम का जन्म



रामायण Episode 2:
राजा दशरथ के चारों पुत्रों का बाललीला आनंद एवम गुरुकुल को प्रस्थान



रामायण Episode 3:
आश्रम में सामान्य शिष्यों की तरह पूर्णत: अनुशासन में रहकर शिक्षा ग्रहण की



रामायण Episode 4:
शिक्षा पूर्ण कर अयोध्या लौटे | विश्वामित्र का दशरथ से माँगना। ताड़का युद्ध



रामायण Episode 5:
ताड़का वध | विश्वामित्र-यज्ञ की रक्षा | अहल्या उद्धार



रामायण Episode 6:
राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र जनकपुर प्रवेश | पुष्पवाटिका-निरीक्षण। सीताजी दर्शन



रामायण Episode 7:
सीता स्वयंवर। राजाओं से धनुष न उठना। जनक की निराशाजनक वाणी।




रामायण Episode 8:
श्री राम द्वारा धनुषभंग | जयमाला पहनाना | परशुराम का आगमन व क्रोध




रामायण Episode 9:
दशरथजी के पास जनकजी का दूत भेजना | बारात का जनकपुर में आना और स्वागतादि




रामायण Episode 10:
श्री सीता-राम विवाह



रामायण Episode 11:
बारात विदाई | बारात का अयोध्या लौटना और अयोध्या में आनंद




रामायण Episode 12:
भरत-शत्रुघ्न कैकेयी प्रदेश जाते हैं| दशरथ राम को राजा बनाने का निर्णय लेते हैं।




रामायण Episode 13:
श्री राम के राज्याभिषेक की तैयारी| कैकेयी-मन्थरा संवाद |



रामायण Episode 14:
कैकेयी का कोप भवन में जाना | कैकेयी के दो वरदान |




रामायण Episode 15:
श्रीराम-कौशल्या संवाद | वन गमन की तैयारी |



रामायण Episode 16:
श्रीराम-सीता-लक्ष्मण का वन गमन |



रामायण Episode 17:
राम का श्रृंगवेरपुर पहुँचना | निषाद के द्वारा सेवा | सुमंत्र का लौटना |




रामायण Episode 18:
केवट का प्रेम और श्री राम का गंगा पार जाना |




रामायण Episode 19:
श्रीराम-वाल्मीकि संवाद | चित्रकूट में निवास |कोल-भीलों के द्वारा सेवा




रामायण Episode 20:
श्रवण कुमार प्रसंग | दशरथ मरण








जब कृष्ण और बलराम जी पहलवानों को मार कंस की ओर दौड़े -

भगवान श्री कृष्ण और बलराम ने चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल—इन पाँचों पहलवानो को मारा। इसके बाद जो बचे वो जान बचाकर भाग गए।

भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की इस अद्भुत लीला को देखकर सभी दर्शकों को बड़ा आनन्द हुआ। श्रेष्ठ ब्राम्हण और साधु पुरुष ‘धन्य है, धन्य है, ऐसा कहकर आशीर्वाद दे रहे थे और प्रसन्न हो रहे थे। लेकिन कंस को बहुत दुःख हुआ।



कंस चिढ गया। जब उसके प्रधान पहलवान मार डाले गये और बचे हुए सब-के-सब भाग गये, तब भोजराज कंस ने अपने बाजे-गाजे बंद करा दिये और अपने सेवकों को यह आज्ञा दी— ‘अरे, वसुदेव के इन दुश्चरित्र लड़कों को नगर से बाहर निकाल दो। गोपों का सारा धन छीन लो और दुर्बुद्धि नन्द को कैद कर लो। वसुदेव भी बड़ा कुबुद्धि और दुष्ट है। उसे शीघ्र मार डालो और उग्रसेन मेरा पिता होने पर भी अपने अनुयायियों के साथ शत्रुओं से मिला हुआ है। इसलिये उसे भी जीता मत छोडो’।

जब कंस इस तरह की बकवास कर रहा था भगवान से रहा नही गया और अविनाशी श्रीकृष्ण कुपित होकर फुर्ती से पुरे वेग से उछलकर लीला से ही उसके ऊँचे मंच पर जा चढ़े।

कंस ने भगवान को देखा तो उसे भगवान के रूप में साक्षात मृत्यु दिखाई पड़ रही है। भगवान कृष्ण उसके सामने आये तब वह सहसा अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और हाथ में ढाल तथा तलवार उठा ली । हाथ में तलवार लेकर वह चोट करने का मौका ढूँढता हुआ पैंतरा बदलने लगा। आकाश में उड़ते हुए बाज की तरह वह कभी दायीं ओर जाता तो कभी बायीं ओर।

परन्तु भगवान से कौन बच सकता है। जैसे गरुड़ साँप को पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान ने बलपूर्वक उसे पकड़ लिया। भगवान को आज याद आ रहा है की इस कंस ने मेरी माँ देवकी के केश पकडे थे और पिता को जेल में डाला था। इसने मेरे माता पिता, और प्रजा के साथ बहुत अन्याय किया है। इसी समय कंस का मुकुट गिर गया और भगवान ने उसके केश पकड़कर उसे भी उस ऊँचे मंच से रंगभूमि में गिरा दिया। और फिर सम्पूर्ण त्रिलोकी का भार लेकर भगवान श्री कृष्ण उसके ऊपर कूद गए। भगवान के कूदते ही कंस की मृत्यु हो गई।

सबके देखते-देखते भगवान श्रीकृष्ण कंस की लाश को धरती पर उसी प्रकार घसीटने लगे, जैसे सिंह हाथी को घसीटे। सबके मुँह से ‘हाय! हाय!’ की बड़ी ऊँची आवाज सुनायी पड़ी ।

कंस हमेशा बड़ी घबड़ाहट के साथ श्रीकृष्ण का ही चिन्तन करता रहता था। वह खाते-पीते, सोते-चलते, बोलते और साँस लेते—सब समय अपने सामने चक्र हाथ में लिये भगवान श्रीकृष्ण को ही देखता रहता था। इस नित्य चिन्तन के फलस्वरूप—वह चाहे द्वेषभाव से ही क्यों न किया गया हो—उसे भगवान के उसी रूप की प्राप्ति हुई, सारुप्य मुक्ति हुई, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े तपस्वी योगियों के लिये भी कठिन है। भगवान की दयालुता देखिये, भगवान ने इस कंस को भी मुक्ति प्रदान कर दी।



जब कंस मरा तो कंस के कंक और न्यग्रोध आदि आठ छोटे भाई थे। वे अपने बड़े भाई का बदला लेने के लिये क्रोध से आगबबूले होकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की ओर दौड़े । जब भगवान बलरामजी ने देखा कि वे बड़े वेग से युद्ध के लिये तैयार होकर दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने परिघ उठाकर उन्हें वैसे ही मार डाला, जैसे सिंह पशुओं को मार डालता है ।

उस समय आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। भगवान के विभूतिस्वरुप ब्रम्हा, शंकर आदि देवता बड़े आनन्द से पुष्पों की वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं ।

महाराज! कंस और उसके भाइयों कि स्त्रियाँ अपने आत्मीय स्वजनों की मृत्यु से अत्यन्त दुःखित हुईं। वे अपने सिर पीटती हुई आँखों में आँसू भरे वहाँ आयीं । वीरशय्या पर सोये हुए अपने पतियों से लिपटकर वे शोकग्रस्त हो गयीं और बार-बार आँसू बहाती हुई ऊँचे स्वर से विलाप करने लगीं । ‘हा नाथ! हे प्यारे! हे धर्मज्ञ! हे करुणामय! हे अनाथवत्सल! आपकी मृत्यु से हम सबकी मृत्यु हो गयी। आज हमारे घर उजड़ गये। हमारी सन्तान अनाथ हो गयी । पुरुषश्रेष्ठ! इस पुरी के आप ही स्वामी थे। आपके विरह से इसके उत्सव समाप्त हो गये और मंगलचिन्ह उतर गये।

यह हमारी ही भाँति विधवा होकर शोभाहीन हो गयी । स्वामी! आपने निरपराध प्राणियों के साथ घोर द्रोह किया था, अन्याय किया था; इसी से आपकी यह गति हुई। सच है, जो जगत् के जीवों से द्रोह करता है, उनका अहित करता है, ऐसा कौन पुरुष शान्ति पा सकता है ? ये भगवान श्रीकृष्ण जगत् के समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय के आधार हैं। यही रक्षक भी हैं। जो इसका बुरा चाहता है, इनका तिरस्कार करता है; वह कभी सुखी नहीं हो सकता ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ही सारे संसार के जीवनदाता हैं। उन्होंने रानियों को ढाढ़स बँधाया, सान्त्वना दी; फिर लोक-रीति के अनुसार मरने वालों का जैसा क्रिया-कर्म होता है, वह सब कराया।

इस तरह भगवान ने कंस का उद्धार करके मथुरा पूरी और सब प्रजा को सुख प्रदान किया।

बोलिए कृष्ण जी महाराज की जय !! बलराम भैया की जय !!

जानिए प्रभु श्रीराम की सेना में कौन-कौन से महाबली योद्धा थे -

श्रीराम ने अपनी सेना कुछ इस तरह सुसज्जित की थी -

प्रभु श्री राम की सेना 10 योजन तक फैली थी

नील के साथ 1,00000 से ज्यादा वानर सेना थी
शतबली के साथ भी 1,00000 से ज्यादा वानर सेना थी
केसरी, पनस, और गज 1,00000 से ज्यादा वानर सेना के साथ युद्ध कर रहे थे
सुग्रीव - वानरों के राजा 10,00,000 से ज्यादा सेना के साथ युद्ध कर रहे थे

हुनमान - केसरी के पुत्र
अंगद - बालि का पुत्र
द्विविद - एक वानर, जो वानरों के राजा सुग्रीव के मन्त्री थे
जामवन्त -  सुग्रीव के मित्र
केसरी - हनुमान जी के पिता
नल - सुग्रीव के सेना नायक
नील - सुग्रीव के सेना नायक प्रभु श्रीराम की सेना

सुग्रीव की अन्य सेना सेना नायकों के साथ लंका के चारों द्वारों पे युद्ध थी ।



अन्य महाबली और योद्धाओं के नाम - 

गज
गन्धमादन
गवाक्ष
जम्भ
ज्योतिर्मुख
क्रथन
कुमुद
महोदर
मयंद
प्रजंघ
प्रमथी
पृथु
रम्भ
ऋषभ
सानुप्रस्थ
सभादन
शरभ
शतबली
सुन्द
वालीमुख
वेगदर्श
वेमदर्शी




जब लक्ष्मण जी सीता माता को राज्य से बाहर जंगल में अकेले छोड़ आये -

जब अयोध्या में शासन करते हुये बहुत समय बीत गया तब एक दिन रामचन्द्रजी सीता के गर्भवती होने का समाचार पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुये। वे सीता से बोले, “विदेहनन्दिनी! अब तुम शीघ्र इक्ष्वाकुवंश को पुत्ररत्न प्रदान करोगी। इस समय तुम्हारी क्या इच्छा है? मैं तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूरा करूँगा। तुम निःसंकोच होकर अपने मन की बात कहो।”

पति के मृदु वचन सुनकर सीताजी मुस्कुराकर बोलीं, “स्वामी! मेरी इच्छा एक बार उन पवित्र तपोवनों को देखने की हो रही है। मैं कुछ समय उन महर्षि तपस्वियों के पास रहना चाहती हूँ जो कन्द-मूल-फल खाकर गंगा के तट पर तपस्या करते हैं। कम से कम एक रात्रि वहाँ निवास करके मैं उन्हें उग्र तपस्या करते देखना चाहती हूँ। इस समय यही मेरी अभिलाषा है।”

हृदयेश्वरी की अभिलाषा जानकर रघुनन्दन बोले, “सीते! तुम्हारी अभिलाषा मैं अवश्य पूरी करूँगा। तुम निश्‍चिंत रहो। कल प्रातःकाल ही मैं तुम्हें गंगातट वासी ऋषियों के आश्रम की ओर भेजने की व्यवस्था करा दूँगा।” सीता को आश्‍वासन देकर श्रीराम राजदरबार में चले गये। राजदरबार से निवृत हो वे अपने मित्रों में बैठकर हास्यविनोद की वार्ता करने लगे। मित्रमण्डली में उनके बालसखा विजय, मधुवत्त, काश्यप, मंगल, कुल, सुराजि, कालिय, भद्र, दन्तवक्त्र और सुभागध थे। बातो ही बातों में रामचन्द्र ने पूछा, “भद्र! आजकल नगर में किस बात की चर्चा विशेषरूप से होती है? नगर और जनपद के लोग मेरे, सीता, भरत-लक्ष्मण आदि भाइयों और माता कैकेयी के विषय में क्या-क्या बातें करते हैं? प्रायः देखा जाता है कि राजा यदि आचार-विचार से हीन हो तो सर्वत्र उसकी निन्दा होती है।”

भद्र ने उत्तर दिया, “सौम्य! सर्वत्र आपके विषय में अच्छी ही चर्चा सुनने को मिलती है। दशग्रीव पर जो आपने विजय प्राप्त की है, उसको लेकर सब लोग आपकी खूब प्रशंसा करते हैं और आपकी वीरता के कहानी अपने बच्चों को बड़े उत्साह से सुनाते हैं।”
रामचन्द्र बोले, “भद्र! ऐसा नहीं हो सकता कि सब लोग मेरे विषय में सब अच्छी ही बातें कहें। कुछ ऐसी भी बातें हो सकती हैं जो उन्हें अच्छी न लगती हों। संसार में सभी प्रवृति के लोग होते हैं। इसलिये तुमने जो कुछ भी सुना हो निश्‍चिंत होकर बेखटके कहो। यदि उन्हें मुझमें कोई दोष दिखाई देता होगा तो मैं उसे दूर करने की चेष्ट करूँगा।”
यह सुनकर भद्र बोला, “वे कहते हैं कि श्रीराम ने समुद्र पर पुल बाँध कर ऐसा दुष्कर कार्य किया है जिसे देवता भी नहीं कर सकते। रावण को मारकर वानरों को भी वश में कर लिया परन्तु एक बात खटकती है। रावण को मारकर उस सीता को घर ले आये जो इतने दिनों तक रावण के पास रही। फिर सीता से घृणा करने के बजाय उन्होंने उसे कैसे अपने पास रख लिया? भला सीता का चरित्र क्या वहाँ पवित्र रहा होगा? अब प्रजाजन भी ऐसी स्त्रियों को अपने घरों में रखने लगेंगे क्योंकि जैसा राजा करता है, प्रजा भी वैसा ही करती है। इस प्रकार सारे नगर निवासी भिन्न-भिन्न प्रकार की बातें करते हैं।”

भद्र की बात का अन्य साथियों ने भी यह कहकर समर्थन किया कि ‘हमने भी ऐसी बातें लोगों के मुख से सुनी हैं।’ सबकी बात सुनकर राजा राम ने उन्हें विदा किया और इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगे। फिर उन्होंने द्वारपाल को आज्ञा देकर अपने तीनों भाइयों को बुलाया। भाइयों ने आकर उन्हें सादर प्रणाम किया और देखा, श्रीराम बहुत उदास हैं तथा उनके नेत्रों में आँसू डबडबा रहे हैं। श्रीराम ने बड़े आदर से अपने भाइयों को अपने पास बिठाकर कहा, “बन्धुओं! मैंने तुम्हें इसलिये बुलाया है कि मैं तुम्हें उस चर्चा की जानकारी दे दूँ जो पुरवासियों में मेरे और सीता के विषय में चल रही है। उनमें सीता के चरित्र के विषय में घोर अपवाद फैला हुआ है और मेरे विषय में भी उनके मन में घृणा के भाव हैं। लक्ष्मण! यह तो तुम जानते ही हो कि सीता ने अपने चरित्र की पवित्रता सिद्ध करने के लिये सबके सामने अग्नि में प्रवेश किया था और उस समय स्वयं अग्निदेव ने उन्हें निर्दोष बताया था। इस प्रकार विशुद्ध आचार वाली सीता को स्वयं देवराज इन्द्र ने मेरे हाथों में सौंपा था। फिर भी अयोध्या में यह अपवाद फैल रहा है और लोग मेरी निन्दा कर रहे हैं। मैं लोक निन्दा के भय से अपने प्राणों को और तुम्हें भी त्याग सकता हूँ, फिर सीता का परित्याग करना तो मेरे लिये तनिक भी कठिन नहीं होगा।

राम जी ने लक्ष्मण से कहा - लक्ष्मण! कल प्रातः तुम सारथी सुमन्त के साथ सीता को ले जाकर राज्य की सीमा से बाहर छोड़ आओ। गंगा के उस पार तमसा के तट पर महर्षि वाल्मीकि का आश्रम है। उसके निकट उन्हें छोड़कर लौट आना। मैं तुम लोगों को अपने चरणों और जीवन की शपथ देता हूँ, मेरे निर्णय के विरुद्ध कोई कुछ मत कहना। सीता ने गंगातट पर ऋषियों के आश्रम देखने की इच्छा प्रकट की थी, वह भी पूरी हो जायेगी।”फिर गहरी साँस भरकर नेत्रों में आये आँसू पोंछकर वे मौन हो गये।

प्रातःकाल बड़े उदास मन से लक्ष्मण ने सुमन्त से सुन्दर घोड़ों से युक्‍त रथ लाने के लिये कहा। उसमें सीता जी के लिये एक सुरम्य आसन लगाने का भी आदेश दिया। सुमन्त के पूछने पर बताया कि उन्हें जानकी के साथ महर्षियों के आश्रम पर जाना है। रथ आ जाने पर लक्ष्मण सीता जी के पास जाकर बोले, “देवि! आपने महाराज से मुनियों के आश्रमों में जाने की अभिलाषा प्रकट की थी। अतएव मैं महाराज की आज्ञा से तैयार होकर आ गया हूँ ताकि आपको गंगा तट पर ऋषियों के पवित्र आश्रमों तक पहुँचा सकूँ।लक्ष्मण के वचन सुनकर सीता जी प्रन्नतापूर्व उनके साथ चलने को तैयार हो गईं। मुनिपत्‍नियों को देने के लिये उन्होंने अपने साथ बहुत से बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण और नाना प्रकार के रत्‍न रख लिये। उन दोनों को रथ पर सवार कराकर सुमन्त द्रुतगति से रथ को वन की ओर ले चला। मार्ग में सीता लक्ष्मण से कहने लगी, “वीरवर! मुझे बहत से अपशकुन दिखाई दे रहे हैं। मेरी दायीं आँख फड़क रही है, शरीर काँप रहा है, हृदय अस्वस्थ सा प्रतीत हो रहा है। तुम्हारे भाई कुशल से तो हैं? मेरी सब सासुएँ सानन्द तो हैं?”सीता की अधीर वाणी सुनकर लक्ष्मण ने अपने मन की उदासी दबाकर उन्हें धैर्य बँधाया। गोमती के तट पर पहुँचकर एक आश्रम में उन्होंने रात व्यतीत की।


दूसरे दिन प्रातःकाल वे आगे चले और दोपहर तक गंगा के तट पर जा पहुँचे। गंगा की जलधारा को देखते ही लक्ष्मण के नेत्रों से जलधारा बह चली और वे फूट-फूट कर रोने लगे। सीता ने चिन्तित होकर उनसे रोने का कारण पूछा। लक्ष्मण ने उनके प्रश्‍न का कोई उत्तर नहीं दिया और रथ से उतर नौका पर सवार हो सीता सहित गंगा के दूसरे तट पर जा पहुँचे।गंगा के उस तट पर नौका से उतर लक्ष्मण सीता से हाथ जोड़कर बोले, “देवि! आज मुझे बड़े भैया ने वह कार्य सौंपा है जिससे सारे लोक में मेरी भारी निन्दा होगी। मुझे यह बताते हुये भारी पीड़ा हो रही है कि अयोध्या में आपके लंका प्रवास की बात को लेकर भारी अपवाद फैल गया है। इससे अत्यन्त दुःखी होकर महाराज राम ने आपका परित्याग कर दिया है और मुझे आपको यहाँ गंगा तट पर छोड़ जाने का आदेश दिया है।

वैसे यह स्थान सर्वथा निरापद है क्योंकि यहाँ महायशस्वी ब्रह्मर्षि वाल्मीकि जी का आश्रम है। आप यहाँ उपवास परायण आदि करती हुईं धार्मिक जीवन व्यतीत करें।”लक्ष्मण के ये कठोर वचन सुनकर जनकनन्दिनी को ऐसा आघात लगा कि वे मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। फिर चेतना आने पर बोलीं, “लक्ष्मण! क्या विधाता ने मुझे जीवन पर्यन्त दुःख भोगने के लिये ही उत्पन्न किया है? पहले मुझे राघव से अलग होकर लंका में रहना पड़ा और अब उन्होंने मुझे सदा के लिये त्याग दिया। लक्ष्मण! मेरी समझ में यह नहीं आता कि यदि मुनिजन मुझसे यह पूछेंगे कि तुम्हें श्रीराम ने किस अपराध के कारण त्यागा है तो मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगी? मेरी सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि मैं गंगाजी में डूब कर अपने प्राण भी विसर्जन नहीं कर सकती, क्योंकि ऐसा करने से मेरे पति का राजवंश नष्ट हो जायेगा। तुम दुःखी क्यों होते हो? तुम तो महाराज की आज्ञा का ही पालन कर रहे हो, जो तुम्हारा कर्तव्य है। जाओ, तुम लौट जाओ और सबसे मेरा सादर प्रणाम कहना।”सीता से आज्ञा लेकर अत्यन्त दुःखी मन से लक्ष्मण मृतप्राय शरीर को ढोते हुये रथ पर बैठे और बैठते ही मूर्छित हो गये। मूर्छा दूर होने पर वे फिर आँसू बहाने लगे।

उधर सीता विलाप करती हुई चीत्कार करने लगी। दो मुनिकुमारों ने सीता को इस प्रकार विलाप करते देखा तो उन्होंने ब्रह्मर्षि वाल्मीकि के पास जाकर इसका वर्णन किया। यह समाचार सुनकर वाल्मीकि जी सीता जी के पास पहुँचे और बोले, “पतिव्रते! मैंने अपने योगबल से जान लिया है कि तुम राजा दशरथ की पुत्रवधू और मिथिलेश की पुत्री हो। मुझे तुम्हारे परित्याग की बात भी मालूम हो चुकी है। इसलिये तुम मेरे आश्रम में चलकर अन्य तपस्विनी नारियों के साथ निश्‍चिंत होकर निवास करो। वे तुम्हारी यथोचित देखभाल करेंगीं।”मुनि के वचन सुनकर सीता ने उन्हें श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया और महर्षि के आश्रम में आकर रहने लगी।

शिव तांडव स्त्रोतम

||सार्थशिवताण्डवस्तोत्रम् ||
||श्रीगणेशाय नमः ||

जटा टवी गलज्जल प्रवाह पावितस्थले, गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्ग तुङ्ग मालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं, चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ||१||


जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिम्प निर्झरी, विलो लवी चिवल्लरी विराजमान मूर्धनि |
धगद् धगद् धगज्ज्वलल् ललाट पट्ट पावके किशोर चन्द्र शेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ||२||


धरा धरेन्द्र नंदिनी विलास बन्धु बन्धुरस् फुरद् दिगन्त सन्तति प्रमोद मानमानसे |
कृपा कटाक्ष धोरणी निरुद्ध दुर्धरापदि क्वचिद् दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ||३||


लता भुजङ्ग पिङ्गलस् फुरत्फणा मणिप्रभा कदम्ब कुङ्कुमद्रवप् रलिप्तदिग्व धूमुखे |
मदान्ध सिन्धुरस् फुरत् त्वगुत्तरीयमे दुरे मनो विनोद मद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ||४||


सहस्र लोचनप्रभृत्य शेष लेखशेखर प्रसून धूलिधोरणी विधूस राङ्घ्रि पीठभूः |
भुजङ्ग राजमालया निबद्ध जाटजूटक श्रियै चिराय जायतां चकोर बन्धुशेखरः ||५||



ललाट चत्वरज्वलद् धनञ्जयस्फुलिङ्गभा निपीत पञ्चसायकं नमन्निलिम्प नायकम् |
सुधा मयूखले खया विराजमानशेखरं महाकपालिसम्पदे शिरोज टालमस्तु नः ||६||


कराल भाल पट्टिका धगद् धगद् धगज्ज्वल द्धनञ्जयाहुती कृतप्रचण्ड पञ्चसायके |
धरा धरेन्द्र नन्दिनी कुचाग्र चित्रपत्रक प्रकल्प नैक शिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम |||७||


नवीन मेघ मण्डली निरुद् धदुर् धरस्फुरत्- कुहू निशीथि नीतमः प्रबन्ध बद्ध कन्धरः |
निलिम्प निर्झरी धरस् तनोतु कृत्ति सिन्धुरः कला निधान बन्धुरः श्रियं जगद् धुरंधरः ||८||


प्रफुल्ल नीलपङ्कज प्रपञ्च कालिम प्रभा- वलम्बि कण्ठकन्दली रुचिप्रबद्ध कन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छि दांध कच्छिदं तमंत कच्छिदं भजे ||९||


अखर्व सर्व मङ्गला कला कदंब मञ्जरी रस प्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्त कान्ध कान्त कं तमन्त कान्त कं भजे ||१०||


जयत् वदभ्र विभ्रम भ्रमद् भुजङ्ग मश्वस – द्विनिर्ग मत् क्रमस्फुरत् कराल भाल हव्यवाट् |
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः ||११||


स्पृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्- – गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः |
तृष्णारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः ( समं प्रवर्तयन्मनः) कदा सदाशिवं भजे ||१२||


कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन् |
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ||१३||


इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ||१४||


पूजा वसान समये दशवक्त्र गीतं यः शंभु पूजन परं पठति प्रदोषे |
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्र तुरङ्ग युक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः ||१५||


पिछले साल बाहुबली मूवी में भी इसका उच्चारण सुनने को मिला था - मेरा अभिनंदन मूवी के निर्माता और निर्देशक का जिन्होंने लोगों को तांडव स्त्रोतम सुनने का मौका दिया।

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