जरूर जानिए रावण के जन्म की रोचक कहानी -

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं कि रावण इतना शक्तिशाली था की उसने बहुंत से देवताओं को बंदी बना के अपने दरबार में रखा था और ये सभी हाथ जोड़कर खड़े रहते थे। रावण जितना दुष्ट था, उसमें उतनी खुबियां भी थीं, शायद इसीलिए कई बुराइयों के बाद भी रावण को महाविद्वान और प्रकांड पंडित माना जाता था। रावण का इरादा था कि वो संसार से भगवान की पूजा की परंपरा को ही समाप्त कर दे ताकि फिर दुनिया में सिर्फ उसकी ही पूजा हो। रावण जब भी युद्ध करने निकलता तो खुद बहुत आगे चलता था और बाकी सेना पीछे होती थी। उसने कई युद्ध तो अकेले ही जीते थे। रावण ने यमपुरी जाकर यमराज को भी युद्ध में हरा दिया था और नर्क की सजा भुगत रही जीवात्माओं को मुक्त कराकर अपनी सेना में शामिल किया था।आइये जानते हैं रावण और उसके पिता, नाना और पूर्वजों की कहानी -

सुकेश के माल्यवान, सुमाली और माली नामक तीन राक्षस हुए। तीनों ने ब्रह्मा जी की तपस्या करके यह वरदान प्राप्त कर लिये कि हम लोगों को कोई पराजित न कर सके। वर पाकर वे निर्भय हो गये और सुरों, असुरों को सताने लगे। माल्यवान के  सात पुत्र हुए और  सुमाली के दस पुत्र हुए। माली के अनल, अनिल, हर और सम्पाती नामक चार पुत्र हुए। ये सब बलवान और दुष्ट प्रकृति होने के कारण ऋषि-मुनियों को कष्ट दिया करते थे। उनके कष्टों से दुःखी होकर ऋषि-मुनिगण जब भगवान विष्णु की शरण में गये तो उन्होंने आश्‍वासन दिया कि हे ऋषियो! मैं इन दुष्टों का अवश्य ही नाश करूँगा।



जब राक्षसों को विष्णु के इस आश्‍वासन की सूचना मिली तो वे सब मन्त्रणा करके संगठित हो कर माली के सेनापतित्व में इन्द्रलोक पर आक्रमण करने के लिये चल पड़े। समाचार पाकर भगवान विष्णु ने अपने अस्त्र-शस्त्र संभाले और राक्षसों का संहार करने लगे। सेनापति माली सहित बहुत से राक्षस मारे गये और शेष लंका की ओर भाग गये। जब भागते हुए राक्षसों का भी नारायण संहार करने लगे तो माल्यवान क्रुद्ध होकर युद्धभूमि में लौट पड़ा। भगवान विष्णु के हाथों अन्त में वह भी काल का ग्रास बना। शेष बचे हुये राक्षस सुमाली के नेतृत्व में लंका को त्याग कर पाताल में जा बसे और लंका पर कुबेर का राज्य स्थापित हुआ। राक्षसों के विनाश से दुःखी होकर सुमाली ने अपनी पुत्री कैकसी से कहा कि पुत्री! राक्षस वंश के कल्याण के लिये मैं चाहता हूँ कि तुम परम पराक्रमी महर्षि विश्रवा के पास जाकर उनसे पुत्र प्राप्त करो। वही पुत्र हम राक्षसों की देवताओं से रक्षा कर सकता है।

पिता की आज्ञा पाकर कैकसी विश्रवा के पास गई। उस समय भयंकर आँधी चल रही थी। आकाश में मेघ गरज रहे थे। कैकसी का अभिप्राय जानकर विश्रवा ने कहा कि भद्रे! तुम इस कुबेला में आई हो। मैं तुम्हारी इच्छा तो पूरी कर दूँगा परन्तु इससे तुम्हारी सन्तान दुष्ट स्वभाव वाली और क्रूरकर्मा होगी। मुनि की बात सुन कर कैकसी उनके चरणों में गिर पड़ी और बोली कि भगवन्! आप ब्रह्मवादी महात्मा हैं। आपसे मैं ऐसी दुराचारी सन्तान पाने की आशा नहीं करती। अतः आप मुझ पर कृपा करें। कैकसी के वचन सुन कर मुनि विश्रवा ने कहा कि अच्छा तो तुम्हारा सबसे छोटा पुत्र सदाचारी और धर्मात्मा होगा।

इस प्रकार कैकसी के दस मुख वाले पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम दशग्रीव (रावण) रखा गया। उसके पश्‍चात् कुम्भकर्ण, शूर्पणखा और विभीषण के जन्म हुए। दशग्रीव और कुम्भकर्ण अत्यन्त दुष्ट थे, किन्तु विभीषण धर्मात्मा प्रकृति का था। अपने भाई वैश्रवण से भी अधिक पराक्रमी और शक्‍तिशाली बनने के लिये दशग्रीव ने अपने भाइयों सहित ब्रह्माजी की तपस्या की। ब्रह्मा के प्रसन्न होने पर दशग्रीव ने माँगा कि मैं गरुड़, नाग, यक्ष, दैत्य, दानव, राक्षस तथा देवताओं के लिये अवध्य हो जाऊँ। रावण ने 'मनुष्य' से इसलिये नही कहा क्यों के वो मनुष्य को कमजोर तथा बलरहित समझता था| ब्रह्मा जी ने 'तथास्तु' कहकर उसकी इच्छा पूरी कर दी। विभीषण ने धर्म में अविचल मति का और चूँकि कुम्भकर्ण की इच्छा इन्द्रलोक को पाने की थी, इस वजह् से भयभीत इन्द्र ने माँ सरस्वती को कहा कि जब कुम्भकर्ण वरदान मांग रहा हो तब आप उसका ध्यान विचलित करें और सरस्वती की मायावश कुम्भकर्ण इन्द्र की जगह निन्द्र बोला जिससे वह ६ माह सोता था और ६ माह जागता था।


Source: ajabgjab.com

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