महर्षि वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 48 - संस्कृत
Read SHRIRAMCHARITMANAS in Awadhi Hindi English | Valmiki Ramayana in Sanskrit & Hindi | श्रीरामचरितमानस, वाल्मीकि रामायण - मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम
महर्षि वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 48 संस्कृत-हिंदी | Valmiki Ramayan Baalkand Sarg 48 in Sanskrit & Hindi
महर्षि वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 47 संस्कृत-हिंदी | Valmiki Ramayan Baalkand Sarg 47 in Sanskrit & Hindi
महर्षि वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 47 - संस्कृत
Maharishi Valmiki Ramayan Baalkand Sarg 47 - Sanskrit
महर्षि वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 46 संस्कृत-हिंदी | Valmiki Ramayan Baalkand Sarg 46 in Sanskrit & Hindi
महर्षि वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 46 - संस्कृत
Maharishi Valmiki Ramayan Baalkand Sarg 46 - Sanskrit
श्रीमद्वाल्मीकियरामायणे बालकाण्डे षट्चत्वारिंशः सर्गः ॥१-४६॥
हतेषु तेषु पुत्रेषु दितिः परमदुःखिता।
मारीचं कश्यपं नाम भर्तारमिदमब्रवीत्॥ १॥
हतपुत्रास्मि भगवंस्तव पुत्रौर्महाबलैः।
शक्रहन्तारमिच्छामि पुत्रं दीर्घतपोर्जितम्॥ २॥
साहं तपश्चरिष्यामि गर्भं मे दातुमर्हसि।
ईश्वरं शक्रहन्तारं त्वमनुज्ञातुमर्हसि॥ ३॥
तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा मारीचः कश्यपस्तदा।
प्रत्युवाच महातेजा दितिं परमदुःखिताम्॥ ४॥
एवं भवतु भद्रं ते शुचिर्भव तपोधने।
जनयिष्यसि पुत्रं त्वं शक्रहन्तारमाहवे॥ ५॥
पूर्णे वर्षसहस्रे तु शुचिर्यदि भविष्यसि।
पुत्रं त्रैलोक्यहन्तारं मत्तस्त्वं जनयिष्यसि॥ ६॥
एवमुक्त्वा महातेजाः पाणिना सम्ममार्ज ताम्।
तामालभ्य ततः स्वस्ति इत्युक्त्वा तपसे ययौ॥ ७॥
गते तस्मिन् नरश्रेष्ठ दितिः परमहर्षिता।
कुशप्लवं समासाद्य तपस्तेपे सुदारुणम्॥ ८॥
तपस्तस्यां हि कुर्वत्यां परिचर्यां चकार ह।
सहस्राक्षो नरश्रेष्ठ परया गुणसम्पदा॥ ९॥
अग्निं कुशान् काष्ठमपः फलं मूलं तथैव च।
न्यवेदयत् सहस्राक्षो यच्चान्यदपि कांक्षितम्॥ १०॥
गात्रसंवाहनैश्चैव श्रमापनयनैस्तथा।
शक्रः सर्वेषु कालेषु दितिं परिचचार ह॥ ११॥
पूर्णे वर्षसहस्रे सा दशोने रघुनन्दन।
दितिः परमसंहृष्टा सहस्राक्षमथाब्रवीत्॥ १२॥
तपश्चरन्त्या वर्षाणि दश वीर्यवतां वर।
अवशिष्टानि भद्रं ते भ्रातरं द्रक्ष्यसे ततः॥ १३॥
यमहं त्वत्कृते पुत्र तमाधास्ये जयोत्सुकम्।
त्रैलोक्यविजयं पुत्र सह भोक्ष्यसि विज्वर॥ १४॥
याचितेन सुरश्रेष्ठ पित्रा तव महात्मना।
वरो वर्षसहस्रान्ते मम दत्तः सुतं प्रति॥ १५॥
इत्युक्त्वा च दितिस्तत्र प्राप्ते मध्यं दिनेश्वरे।
निद्रयापहृता देवी पादौ कृत्वाथ शीर्षतः॥ १६॥
दृष्ट्वा तामशुचिं शक्रः पादयोः कृतमूर्धजाम्।
शिरःस्थाने कृतौ पादौ जहास च मुमोद च॥ १७॥
तस्याः शरीरविवरं प्रविवेश पुरंदरः।
गर्भं च सप्तधा राम चिच्छेद परमात्मवान्॥ १८॥
भिद्यमानस्ततो गर्भो वज्रेण शतपर्वणा।
रुरोद सुस्वरं राम ततो दितिरबुध्यत॥ १९॥
मा रुदो मा रुदश्चेति गर्भं शक्रोऽभ्यभाषत।
बिभेद च महातेजा रुदन्तमपि वासवः॥ २०॥
न हन्तव्यं न हन्तव्यमित्येव दितिरब्रवीत्।
निष्पपात ततः शक्रो मातुर्वचनगौरवात्॥ २१॥
प्राञ्जलिर्वज्रसहितो दितिं शक्रोऽभ्यभाषत।
अशुचिर्देवि सुप्तासि पादयोः कृतमूर्धजा॥ २२॥
तदन्तरमहं लब्ध्वा शक्रहन्तारमाहवे।
अभिन्दं सप्तधा देवि तन्मे त्वं क्षन्तुमर्हसि॥ २३॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे षट्चत्वारिंशः सर्गः ॥१-४६॥
महर्षि वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 45 संस्कृत-हिंदी | Valmiki Ramayan Baalkand Sarg 45 in Sanskrit & Hindi
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