Hanuman Jayanti

We celebrate the birthday of Lord Hanuman on the 15th day of Shukla Paksha, during Chaitra month also known as (the Chaitra Pournimaa). Lord Hanuman also known as the Vanara god's birthday is widely known as Hanuman Jayanti or Hanumath Jayanti.


Hanuman worships Lord Rama, and there are innumerable tales and legends associated with the two in Ramayana. Hanuman Jayanti is celebrated across the country with full gusto where devotees throng the temples to seek the lord's blessings.
Lord Hanuman symbolises engery, strength and power. His swiftness makes him fly high and even get Sanjeevani bhooti for Lord Laxmana. 
Also, in Maharashtra, the Hanuman Jayanti is celebrated on the full moon day (pūrnima) of the Hindu lunar month of Chaitra.

What to do:


You can recite Hanuman Chalisa on this day and pray to the lord for good health and strength. The lord destroys all that is evil, keeping you energised.
You can visit the Hanuman temple and offer prasad—laddoo, boondi and red tilak (or sindoor). You can even offer vastra to the lord—preferably orange coloured.
Pray to lord for everyone's well-being with pure heart and soul.
You can also visit any temple of Lord Ram, as lord Hanuman will also be there, accompanying the 'Maryada Purshottam' king and his complete family—Sita and Laxman.


Souce: zeenews

आइए जानते है रावण के भाई कुम्भकर्ण से जुडी कुछ रोचक बातें-

कुम्भकर्ण रावण का भाई तथा विश्रवा का पुत्र था। कुंभकर्ण की ऊंचाई छह सौ धनुष तथा मोटाई सौ धनुष थी। उसके नेत्र गाड़ी के पहिये के बराबर थे। उसका विवाह वेरोचन की कन्या 'व्रज्रज्वाला' से हुआ था। वह जन्म से ही अत्यधिक बलवान था उसने जन्म लेते ही कई हज़ार प्रजा जनों को खा डाला था उसे बेहद भूख लगती थी और वह मनुष्य और पशुओं को खा जाता था। उससे डरकर प्रजा इन्द्र की शरण में गयी कि यदि यही स्थिति रही तो पृथ्वी ख़ाली हो जायेगी। इन्द्र से कुंभकर्ण का युद्ध हुआ। उसने ऐरावत हाथी के दांत को तोड़कर उससे इन्द्र पर प्रहार किया। उससे इन्द्र जलने लगा।

कुंभकर्ण ने घोर तपस्या से ब्रह्मा को प्रसन्न कर लिया अत: जब वे उसे वर देने के लिए जाने लगे तो इन्द्र तथा अन्य सब देवताओं ने उनसे वर न देने की प्रार्थना की क्योंकि कुंभकर्ण से सभी लोग परेशान थे। ब्रह्मा बहुत चिंतित हुए। उन्होंने सरस्वती से कुंभकर्ण की जिह्वा पर प्रतिष्ठित होने के लिए कहा। फलस्वरूप ब्रह्मा के यह कहने पर कि कुंभकर्ण वर मांगे- उसने अनेक वर्षों तक सो पाने का वर मांगा। ब्रह्मा ने वर दिया कि वह निरंतर सोता रहेगा। छह मास के बाद केवल एक दिन के लिए जागेगा। भूख से व्याकुल वह उस दिन पृथ्वी पर चक्कर लगाकर लोगों का भक्षण करेगा।

कुंभकर्ण के विषय में श्रीराम चरित मानस में लिखा है कि-

अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता।।
करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा।।

रावण का भाई कुंभकर्ण अत्यंत बलवान था, इससे टक्कर लेने वाला कोई योद्धा पूरे जगत में नहीं था। वह मदिरा पीकर छ: माह सोया करता था। जब कुंभकर्ण जागता था तो तीनों लोकों में हाहाकार मच जाता था।

रावण, विभीषण और कुंभकर्ण तीनों भाईयों ने ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की थी। तपस्या से प्रसन्न होकर जब ब्रह्माजी प्रकट हुए तो कुंभकर्ण को वरदान देने से पहले चिंतित थे। इस संबंध में श्रीरामचरित मानस में लिखा है कि-

पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ।

इसका अर्थ यह है कि रावण को मनचाहा वरदान देने के बाद ब्रह्माजी कुंभकर्ण के पास गए। उसे देखकर ब्रह्माजी के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ।

जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू।।
सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी।।

ब्रह्माजी की चिंता का कारण ये था कि यदि कुंभकर्ण हर रोज भरपेट भोजन करेगा तो जल्दी ही पूरी सृष्टि नष्ट हो जाएगी। इस कारण ब्रह्माजी ने सरस्वती के द्वारा कुंभकर्ण की बुद्धि भ्रमित कर दी थी। कुंभकर्ण ने मतिभ्रम के कारण 6 माह तक सोते रहने का वरदान मांग लिया।



सीता हरण के बाद श्री राम वानर सेना सहित लंका पहुंच गए थे। श्री राम और रावण, दोनों की सेनाओं के बीच घमासान युद्ध होने लगा, उस समय कुंभकर्ण सो रहा था। जब रावण के कई महारथी मारे जा चुके थे, तब कुंभकर्ण को जगाने का आदेश दिया गया। कई प्रकार के उपायों के बाद जब कुंभकर्ण जागा और उसे मालूम हुआ कि रावण ने सीता का हरण किया है तो उसे बहुत दुख हुआ था।

जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान।

कुंभकर्ण दुखी होकर रावण से बोला कि अरे मूर्ख। तूने जगत जननी का हरण किया है और अब तू अपना कल्याण चाहता है?

इसके बाद कुंभकर्ण ने रावण को कई प्रकार से समझाया कि श्रीराम से क्षमायाचना कर लें और सीता को सकुशल लौटा दे। ताकि राक्षस कुल का नाश होने से बच जाए। इतना समझाने के बाद भी रावण नहीं माना।

जब रावण युद्ध टालने की बातें नहीं माना तो कुंभकर्ण बड़े भाई का मान रखते हुए युद्ध के लिए तैयार हो गया। कुंभकर्ण जानता था कि श्रीराम साक्षात भगवान विष्णु के अवतार हैं और उन्हें युद्ध में पराजित कर पाना असंभव है। इसके बाद भी रावण का मान रखते हुए, वह श्रीराम से युद्ध करने गया। वह अत्यंत भूखा था। उसने वानरों को खाना प्रारंभ किया। उसका मुंह पाताल की तरह गहरा था। वानर कुंभकर्ण के गहरे मुंह में जाकर उसके नथुनों और कानों से बाहर निकल आते थे। अंततोगत्वा राम युद्धक्षेत्र में उतरे। उन्होंने पहले बाणों से हाथ, फिर पांव काटकर कुंभकर्ण को पंगु बना दिया। तदनंतर उसे अस्त्रों से मार डाला। उसके शव के गिरने से लंका का बाहरी फाटक और परकोटा गिर गया।



Source: ajabgjab.com and http://bharatdiscovery.org/


जरूर जानिए रावण के जन्म की रोचक कहानी -

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं कि रावण इतना शक्तिशाली था की उसने बहुंत से देवताओं को बंदी बना के अपने दरबार में रखा था और ये सभी हाथ जोड़कर खड़े रहते थे। रावण जितना दुष्ट था, उसमें उतनी खुबियां भी थीं, शायद इसीलिए कई बुराइयों के बाद भी रावण को महाविद्वान और प्रकांड पंडित माना जाता था। रावण का इरादा था कि वो संसार से भगवान की पूजा की परंपरा को ही समाप्त कर दे ताकि फिर दुनिया में सिर्फ उसकी ही पूजा हो। रावण जब भी युद्ध करने निकलता तो खुद बहुत आगे चलता था और बाकी सेना पीछे होती थी। उसने कई युद्ध तो अकेले ही जीते थे। रावण ने यमपुरी जाकर यमराज को भी युद्ध में हरा दिया था और नर्क की सजा भुगत रही जीवात्माओं को मुक्त कराकर अपनी सेना में शामिल किया था।आइये जानते हैं रावण और उसके पिता, नाना और पूर्वजों की कहानी -

सुकेश के माल्यवान, सुमाली और माली नामक तीन राक्षस हुए। तीनों ने ब्रह्मा जी की तपस्या करके यह वरदान प्राप्त कर लिये कि हम लोगों को कोई पराजित न कर सके। वर पाकर वे निर्भय हो गये और सुरों, असुरों को सताने लगे। माल्यवान के  सात पुत्र हुए और  सुमाली के दस पुत्र हुए। माली के अनल, अनिल, हर और सम्पाती नामक चार पुत्र हुए। ये सब बलवान और दुष्ट प्रकृति होने के कारण ऋषि-मुनियों को कष्ट दिया करते थे। उनके कष्टों से दुःखी होकर ऋषि-मुनिगण जब भगवान विष्णु की शरण में गये तो उन्होंने आश्‍वासन दिया कि हे ऋषियो! मैं इन दुष्टों का अवश्य ही नाश करूँगा।



जब राक्षसों को विष्णु के इस आश्‍वासन की सूचना मिली तो वे सब मन्त्रणा करके संगठित हो कर माली के सेनापतित्व में इन्द्रलोक पर आक्रमण करने के लिये चल पड़े। समाचार पाकर भगवान विष्णु ने अपने अस्त्र-शस्त्र संभाले और राक्षसों का संहार करने लगे। सेनापति माली सहित बहुत से राक्षस मारे गये और शेष लंका की ओर भाग गये। जब भागते हुए राक्षसों का भी नारायण संहार करने लगे तो माल्यवान क्रुद्ध होकर युद्धभूमि में लौट पड़ा। भगवान विष्णु के हाथों अन्त में वह भी काल का ग्रास बना। शेष बचे हुये राक्षस सुमाली के नेतृत्व में लंका को त्याग कर पाताल में जा बसे और लंका पर कुबेर का राज्य स्थापित हुआ। राक्षसों के विनाश से दुःखी होकर सुमाली ने अपनी पुत्री कैकसी से कहा कि पुत्री! राक्षस वंश के कल्याण के लिये मैं चाहता हूँ कि तुम परम पराक्रमी महर्षि विश्रवा के पास जाकर उनसे पुत्र प्राप्त करो। वही पुत्र हम राक्षसों की देवताओं से रक्षा कर सकता है।

पिता की आज्ञा पाकर कैकसी विश्रवा के पास गई। उस समय भयंकर आँधी चल रही थी। आकाश में मेघ गरज रहे थे। कैकसी का अभिप्राय जानकर विश्रवा ने कहा कि भद्रे! तुम इस कुबेला में आई हो। मैं तुम्हारी इच्छा तो पूरी कर दूँगा परन्तु इससे तुम्हारी सन्तान दुष्ट स्वभाव वाली और क्रूरकर्मा होगी। मुनि की बात सुन कर कैकसी उनके चरणों में गिर पड़ी और बोली कि भगवन्! आप ब्रह्मवादी महात्मा हैं। आपसे मैं ऐसी दुराचारी सन्तान पाने की आशा नहीं करती। अतः आप मुझ पर कृपा करें। कैकसी के वचन सुन कर मुनि विश्रवा ने कहा कि अच्छा तो तुम्हारा सबसे छोटा पुत्र सदाचारी और धर्मात्मा होगा।

इस प्रकार कैकसी के दस मुख वाले पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम दशग्रीव (रावण) रखा गया। उसके पश्‍चात् कुम्भकर्ण, शूर्पणखा और विभीषण के जन्म हुए। दशग्रीव और कुम्भकर्ण अत्यन्त दुष्ट थे, किन्तु विभीषण धर्मात्मा प्रकृति का था। अपने भाई वैश्रवण से भी अधिक पराक्रमी और शक्‍तिशाली बनने के लिये दशग्रीव ने अपने भाइयों सहित ब्रह्माजी की तपस्या की। ब्रह्मा के प्रसन्न होने पर दशग्रीव ने माँगा कि मैं गरुड़, नाग, यक्ष, दैत्य, दानव, राक्षस तथा देवताओं के लिये अवध्य हो जाऊँ। रावण ने 'मनुष्य' से इसलिये नही कहा क्यों के वो मनुष्य को कमजोर तथा बलरहित समझता था| ब्रह्मा जी ने 'तथास्तु' कहकर उसकी इच्छा पूरी कर दी। विभीषण ने धर्म में अविचल मति का और चूँकि कुम्भकर्ण की इच्छा इन्द्रलोक को पाने की थी, इस वजह् से भयभीत इन्द्र ने माँ सरस्वती को कहा कि जब कुम्भकर्ण वरदान मांग रहा हो तब आप उसका ध्यान विचलित करें और सरस्वती की मायावश कुम्भकर्ण इन्द्र की जगह निन्द्र बोला जिससे वह ६ माह सोता था और ६ माह जागता था।


Source: ajabgjab.com

ज़रूर जानिए रामायण मे शत्रुघ्न की भूमिका, योगदान और महत्व


कुछ बुद्धिजीविओं  का मानना है की रामायण में शत्रुघ्न की भूमिका कुछ खास नहीं है ये पोस्ट उन लोगों को जरूर पढ़नी  चाहिए!

रामायण और महाभारत समुद्र की तरह ही है जितना ही आप उसमे जाओगे उतने ही मोती रूपी जानकारियाँ मिलती जाएँगी| वैसे तो वाल्मीकि जी द्वारा रामायण श्रीराम जी को केंद्रित मान के लिखी है इसलिये संपूर्ण रामायण भी उन्ही के इर्द गिर्द ही है और शत्रुघ्न के बारे मे ज़्यादा जानकारी नहीं मिलती लेकिन इसका मतलब ये नहीं की शत्रुघ्न की भूमिका लक्ष्मण और भरत से कम है|

शत्रुघ्न का चरित्र अत्यन्त विलक्षण था। ये मौन सेवाव्रती थे। बचपन से भरत का अनुगमन तथा सेवा ही इनका मुख्य व्रत था। ये मितभाषी, सदाचारी, सत्यवादी, विषय-विरागी तथा भगवान श्री राम के दासानुदास थे। जिस प्रकार लक्ष्मण हाथ में धनुष लेकर राम की रक्षा करते हुए उनके पीछे चलते थे, उसी प्रकार शत्रुघ्न भी भरत के साथ रहते थे। जब भरत के मामा युधाजित भरत को अपने साथ ले जा रहे थे, तब शत्रुघ्न भी उनके साथ ननिहाल चले गये। इन्होंने माता-पिता, भाई, नव-विवाहिता पत्नी सबका मोह छोड़कर भरत के साथ रहना और उनकी सेवा करना ही अपना कर्तव्य मान लिया था।





शत्रुघ्न भी अपने अन्य भाईयों के समान ही राम से बहुत स्नेह करते थे। जब भरत के साथ ननिहाल से लौटने पर उन्हें पिता के मरण और लक्ष्मण, सीता सहित श्री राम के वनवास का समाचार मिला, तब इनका हृदय दु:ख और शोक से व्याकुल हो गया। उसी समय इन्हें सूचना मिली कि जिस क्रूरा और पापिनी के षड्यन्त्र से श्री राम को वनवास हुआ, वह वस्त्राभूषणों से सज-धजकर खड़ी है, तब ये क्रोध से व्याकुल हो गये। ये मन्थरा की चोटी पकड़कर उसे आँगन में घसीटने लगे। इनके लात के प्रहार से उसका कूबर टूट गया और सिर फट गया उसकी दशा देखकर भरत को दया आ गयी और उन्होंने उसे छुड़ा दिया। इस घटना से शत्रुघ्न की श्री राम के प्रति दृढ़ निष्ठा और भक्ति का परिचय मिलता है। चित्रकूट से श्री राम की पादुकाएँ लेकर लौटते समय जब शत्रुघ्न श्री राम से मिले, तब इनके तेज़ स्वभाव को जानकर भगवान श्री राम ने कहा- 'शत्रुघ्न! तुम्हें मेरी और सीता की शपथ है, तुम माता कैकेयी की सेवा करना, उन पर कभी भी क्रोध मत करना'।

जब रघुनाथ 14 वर्षों तक वनवास पे थे तब शत्रुघ्न ने भरत जी का अयोध्या में पूरा साथ दिया क्यूंकि भरत जी भी श्री राम  जी की चरन पादुका को सिंघासन पे रख के दूर नंदीग्राम कुटिया में  वनवासी के रूप में जीवन यापन करने लगे थे।  वो शत्रुघ्न ही थे जिन्होंने अयोध्या में रहते हुए राज्य के कार्य को सुचारु रूप से चलने में सहायता की एक निडर  सिपाही की तरह  राज्य की रक्षा की और अपनी सभी माताओं को अन्य तीन भाइयों के न होने की कमी नहीं महसूस होने दी।

शत्रुघ्न का शौर्य भी अनुपम था। सीता-वनवास के बाद एक दिन ऋषियों ने भगवान श्री राम की सभा में उपस्थित होकर लवणासुर के अत्याचारों का वर्णन किया और उसका वध करके उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। शत्रुघ्न ने भगवान श्री राम की आज्ञा से वहाँ जाकर प्रबल पराक्रमी लवणासुर का वध किया और मधुपुरी बसाकर वहाँ बहुत दिनों तक शासन किया। भगवान श्री राम के परमधाम पधारने के समय मथुरा में अपने पुत्रों का राज्यभिषेक करके शत्रुघ्न अयोध्या पहुँचे। श्री राम के पास आकर और उनके चरणों में प्रणाम करके इन्होंने विनीत भाव से कहा- 'भगवन! मैं अपने दोनों पुत्रों को राज्यभिषेक करके आपके साथ चलने का निश्चय करके ही यहाँ आया हूँ। आप अब मुझे कोई दूसरी आज्ञा न देकर अपने साथ चलने की अनुमति प्रदान करें।' भगवान श्री राम ने शत्रुघ्न की प्रार्थना स्वीकार की और वे श्री रामचन्द्र के साथ ही साकेत पधारे।


In English

Shatrughna and Laxman were sons of the second queen Sumitra, wife of Dashratha, the King of Ayodhya. Shatrughna mirrored many aspects of Lakshmana's personality and character.Lakshman followed the footsteps of the paragon of truth, Rama while Shatrughna was equally attached to the unworldly and devoted Bharat, son of Kaikey, and followed him everywhere for he knew that Bharat was a complete devotee of Rama. In Bharat's life, there was no other goal loftier than service to his brother. 

During the Sita Swayamvar, when Sita was wedded to Rama, Raja Janak arranged for the wedding of Shatrughna to Shrutkirti, the daughter of his brother Kushadhvaja. Bharat was married to Mandavi and Urmila to Lakshman. 

Shatrughna asks Bharata why even Lakshmana could not prevent Dasaratha from sending Rama to the forest. Meanwhile, when Manthara arrives at the scen, Shatrughna seizes her with his powerful hand, threatens to punish her and abuses Kaikeyi too. When Kaikeyi pleads for mercy with her son, Bharata intervenses and Shatrughna releases Manthara. (Valmiki Ramayana Ayodhya Kanda, Chapter 78). 

When Bharat placed Rama's charan paduka (sandals), on the throne and went to live in far a away Nandigrama in a straw hut, he lived there for fourteen years, awaiting the arrival of Shri Rama. It was Shatrughna who assumed the mantle of royal duties and the running of the Kingdom. 

For fourteen years he ruled, like an alert soldier and administrator. He made sure that the Queen mothers did not feel the absence of their sons. His guru had justly named him (as Shatrugna) for he very ably overpowered all evil forces and enemies of the state and the subjects. 

After fourteen years, Rama Lakshman and Sita returned to Ayodhya. Guru Vashistha arranged for the coronation of Rama. In those days, Daityas Madhu's son Lavanasura was creating havoc in Madhuvan (forest called Madhu), making the subjects very unhappy. Shatrughna then told Rama, that the world knew the many ways in which Lakshman had served Him. Shatrughna requested Rama to give Shatrughna a chance to prove his Kshatriya (warrior caste) value by killing Lavanasura and serving Ayodhya.. Rama gave him the permission. Shatrughna killed Lavanasura and established the kingdom of Madhupur, which later came to be known as Mathura. Raja Rama made Shatrughna the king of Madhupur. 

When Rama conducted the Ashwamegh Yagna (horse sacrifice where a horse is let loose and whichever kingdom that horse crosses into has to accept the owner of the horse as their lord or then fight with them), it was Shatrughna who leaded the horse Dig Vijay and made the yagna successful. Shatrughna was also a part incarnation of Vishnu. 

By looking after the welfare of the family, the queens, the subjects and the kingdom, Shatrughna gave a stellar proof of his ideal character. He is equal to Bharat and Rama in his goodness and nobility. 






Source: bharatdiscovery.org and Sapan Saxena

कुछ ही लोग जानते हैं लक्ष्मण वनवास के लगातार 14 वर्षो में नही सोये थे -

रामायण के अभी इतने रहस्य अनजाने है की हम लोग आश्चर्य चकित हो जाते है, जब राम लक्ष्मण भारत शत्रुधन का जन्म हुआ तो चारो भाइयो में से शुरू में रोने के बाद सब चुप हो गए थे, परन्तु लक्ष्मण रोते ही रहे जब तक की उन्हें राम के पास नही सुलाया गया था. तब से लक्ष्मण राम की परछाई ही रहे|

जब वनवास का समय आया तो लक्ष्मण राम के साथ जाने को तैयार हो गए, इस पर पत्नी उर्मिला भी उनके साथ जाने तैयार हो गई. लेकिन लक्ष्मण ने अपनी पत्नी से भीख मांगी की मैं रामसीता की सेवा करना चाहता हूँ तुम साथ होगी तो उसमे विध्न पड़ेगा तब जाके उर्मिला मानी. जब वनवास में पहली रात को राम सीता कुटिया में रोये तो लक्ष्मण के पास निंद्रा देवी आई तब लक्ष्मण ने उन्हें चौदह साल दूर रहने का वरदान माँगा पर उस नींद को किसी को वहां करना था. ऐसे में लक्ष्मण ने नींद को अपनी पत्नी उर्मिला के पास भेज दिया और अपना सन्देश भी भेज दिया, तब लक्ष्मण के हिस्से की नींद उर्मिला को मिली. उर्मिला लगातार चौदह वर्षो तक सोती रही और लक्ष्मण जागते रहे थे|



जब अयोध्या में राम का राजतिलक हो रहा था तो लक्ष्मण जोर जोर से हंसने लगे. जब सबने उससे कारण पूछा तो लक्ष्मण ने कहा की उर्मिला सो रही है जब में उबासी लूंगा तब ही वो जागेगी इस पर सब हंस पड़े और उर्मिला उठ के समारोह में आई|



Source: therednews

जानिए सभी प्रान्तों में कैसे मनाते हैं होली-

होली भारत का प्रमुख त्योहार है। होली जहाँ एक ओर सामाजिक एवं धार्मिक त्योहार है, वहीं रंगों का भी त्योहार है। बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी इसे बड़े उत्साह से मनाते हैं। इसमें जातिभेद-वर्णभेद का कोई स्थान नहीं होता।


उत्तर प्रदेश की होली-

यहाँ होली पर रंग और गुलाल के अलावा तरह तरह के व्यंजन का भी बोलबाला रहता है। गुझिया, दही वड़े, मठरी और इन सब से बढ़ कर ठंडाई और उसके साथ भांग, रंगों के सुरूर को दोगुना कर देती है।


उत्तर प्रदेश के मथुरा, वृन्दावन क्षेत्रों की होली तो विश्वप्रसिद्ध है। मथुरा में बरसाने की होली प्रसिद्ध है। बरसाना राधा जी का गाँव है जो मथुरा शहर से क़रीब 42 किमी अन्दर है। यहाँ एक अनोखी होली खेली जाती है जिसका नाम है लट्ठमार होली। बरसाने में ऐसी परंपरा हैं कि श्री कृष्ण के गाँव नंदगाँव के पुरुष बरसाने में घुसने और राधा जी के मंदिर में ध्वज फहराने की कोशिश करते है और बरसाने की महिलाएं उन्हें ऐसा करने से रोकती हैं और डंडों से पीटती हैं और अगर कोई मर्द पकड़ जाये तो उसे महिलाओं की तरह शृंगार करना होता है और सब के सम्मुख नृत्य करना पड़ता है, फिर इसके अगले दिन बरसाने के पुरुष नंदगाँव जा कर वहाँ की महिलाओं पर रंग डालने की कोशिश करते हैं। यह होली उत्सव क़रीब सात दिनों तक चलता है। इसके अलावा एक और उल्लास भरी होली होती है, वो है वृन्दावन की होली यहाँ बाँके बिहारी मंदिर की होली और 'गुलाल कुंद की होली' बहुत महत्त्वपूर्ण है। वृन्दावन की होली में पूरा समां प्यार की ख़ुशी से सुगन्धित हो उठता है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि होली पर रंग खेलने की परंपरा राधाजी व कृष्ण जी द्वारा ही शुरू की गई थी।

बंगाल और उड़ीसा की होली-

बंगाल में होली को 'डोल यात्रा' व 'डोल पूर्णिमा' कहते हैं और होली के दिन राधा और कृष्ण की प्रतिमाओं को डोली में बैठाकर पूरे शहर में घुमाते है और औरतें उसके आगे नृत्य करती हैं। यह भी अपने आप में एक अनूठी होली है। बंगाल में होली को 'बसंत पर्व' भी कहते है। इसकी शुरुआत रवीन्द्र नाथ टैगोर ने शान्ति निकेतन में की थी। उड़ीसा में भी होली को 'डोल पूर्णिमा' कहते हैं और भगवान जगन्नाथ जी की डोली निकाली जाती है। 




राजस्थान की होली-

राजस्थान की होली यहाँ मुख्यत: तीन प्रकार की होली होती है। माली होली- इसमें माली जात के मर्द, औरतों पर पानी डालते है और बदले में औरतें मर्दों की लाठियों से पिटाई करती है। इसके अलावा गोदाजी की गैर होली और बीकानेर की डोलची होली भी बेहद ख़ूबसूरत होती है।

पंजाब की होली-


पंजाब में होली को 'होला मोहल्ला' कहते है और इसे निहंग सिख मानते है। इस मौके पर घुड़सवारी, तलवारबाज़ी आदि का आयोजन होता है।

हरियाणा की होली-


हरियाणा की होली भी बरसाने की लट्ठमार होली जैसी ही होती है। बस फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि यहाँ देवर, भाभी को रंगने की कोशिश करते है और बदले में भाभी देवर की लाठियों से पिटाई करती है। यहाँ होली को 'दुल्हंदी' भी कहते हैं। 

दिल्ली वालों की दिलवाली होली-

दिल्ली की होली तो सबसे निराली है क्योंकि राजधानी होने की वजह से यहाँ पर सभी जगह के लोग अपने ढंग होली मानते है जो आपसी समरसता और सौहार्द का स्वरूप है। वैसे दिल्ली में नेताओं की होली की भी ख़ूब धूम होती है।
आंध्र प्रदेश की होली -

वैसे तो दक्षिण में उत्तर भारत की तरह की रंगों वाली होली नहीं मनाई जाती है फिर भी सभी लोग हर्षोल्लास में शामिल रहते हैं। उत्तर भारत से इतर दक्षिण में नवयुवक शाम को एकत्रित हो कर गुलाल से होली खेलते है और बड़ों का आशीर्वाद लेते है। आंध्र प्रदेश के बंजारा जनजतियों का होली मनाने का अपना निराला तरीक़ा है। यह लोग अपने विशिष्ट अंदाज़ में मनोरम नृत्य प्रस्तुत करते हैं।

तमिलनाडु की होली-

इसी प्रकार तमिलनाडु में होली को 'कमाविलास', 'कमान पंदिगाई' एवं 'काम-दहन' के नाम से जाना जाता है, यहाँ के लोगों का मानना है कि कामदेव के तीर के कारण ही शिव को पार्वती से प्रेम हुआ था और भगवान शिव का विवाह देवी पार्वती से हुआ था, मगर तीर लगने से क्रोधित शिव जी ने कामदेव को भस्म कर दिया था तब रति के आग्रह पर देवी पार्वती ने उन्हें पुनर्जीवित किया और जिस दिन कामदेव पुनर्जिवित हुए उस दिन को होली के रूप में मानते है। इसीलिए तमिलनाडु में होली को काम पंदिगाई के नाम से जाना जाता है। यहाँ होली को प्रेम के पर्व के रूप में मनाया जाता है


कर्नाटक में होली -

कर्नाटक में यह त्योहार कामना हब्बा के रूप में मनाया जाता है। इस दिन भगवान शिव ने कामदेव को अपने तीसरे नेत्र से जला दिया था। इस दिन कूड़ा-करकट फटे वस्त्र, एक खुली जगह एकत्रित किए जाते हैं तथा इन्हें अग्नि को समर्पित किया जाता है। आस-पास के सभी पड़ोसी इस उत्सव को देखने आते हैं। 


इसके अलावा बिहार की फगुआ होली, महाराष्ट्र की रंगपंचमी, गोवा की शिमगो, गुजरात की गोविंदा होली, और पश्चिमी पूर्व की 'बिही जनजाति की होली' की धूम भी निराली है।


Source: 
http://bharatdiscovery.org 

जानिए काकभुशुण्डि और उनके पूर्वजन्म के बारे मे

काकभुशुण्डि रामचरितमानस के एक पात्र हैं। संत तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में लिखा है कि काकभुशुण्डि परमज्ञानी रामभक्त हैं। रावण के पुत्र मेघनाथ ने राम से युद्ध करते हुये राम को नागपाश से बाँध दिया था। देवर्षि नारद के कहने पर गरूड़, जो कि सर्पभक्षी थे, ने नागपाश के समस्त नागों को खाकर राम को नागपाश के बंधन से छुड़ाया। राम के इस तरह नागपाश में बँध जाने पर राम के परमब्रह्म होने पर गरुड़ को सन्देह हो गया। गरुड़ का सन्देह दूर करने के लिये देवर्षि नारद उन्हें ब्रह्मा जी के पास भेजा। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि तुम्हारा सन्देह भगवान शंकर दूर कर सकते हैं। भगवान शंकर ने भी गरुड़ को उनका सन्देह मिटाने के लिये काकभुशुण्डि जी के पास भेज दिया। अन्त में काकभुशुण्डि जी राम के चरित्र की पवित्र कथा सुना कर गरुड़ के सन्देह को दूर किया। गरुड़ के सन्देह समाप्त हो जाने के पश्चात् काकभुशुण्डि जी गरुड़ को स्वयं की कथा सुनाया जो इस प्रकार हैः



पूर्व के एक कल्प में कलियुग का समय चल रहा था। उसी समय काकभुशुण्डि जी का प्रथम जन्म अयोध्या पुरी में एक शूद्र के घर में हुआ। उस जन्म में वे भगवान शिव के भक्त थे किन्तु अभिमानपूर्वक अन्य देवताओं की निन्दा करते थे। एक बार अयोध्या में अकाल पड़ जाने पर वे उज्जैन चले गये। वहाँ वे एक दयालु ब्राह्मण की सेवा करते हुये उन्हीं के साथ रहने लगे। वे ब्राह्मण भगवान शंकर के बहुत बड़े भक्त थे किन्तु भगवानविष्णु की निन्दा कभी नहीं करते थे। उन्होंने उस शूद्र को शिव जी का मन्त्र दिया। मन्त्र पाकर उसका अभिमान और भी बढ़ गया। वह अन्य द्विजों से ईर्ष्या और भगवान विष्णु से द्रोह करने लगा। उसके इस व्यवहार से उनके गुरु (वे ब्राह्मण) अत्यन्त दुःखी होकर उसे श्री राम की भक्ति का उपदेश दिया करते थे।

एक बार उस शूद्र ने भगवान शंकर के मन्दिर में अपने गुरु, अर्थात् जिस ब्राह्मण के साथ वह रहता था, का अपमान कर दिया। इस पर भगवान शंकर ने आकाशवाणी करके उसे शाप दे दिया कि रे पापी! तूने गुरु का निरादर किया है इसलिये तू सर्प की अधम योनि में चला जा और सर्प योनि के बाद तुझे 1000 बार अनेक योनि में जन्म लेना पड़े। गुरु बड़े दयालु थे इसलिये उन्होंने शिव जी की स्तुति करके अपने शिष्य के लिये क्षमा प्रार्थना की। गुरु के द्वारा क्षमा याचना करने पर भगवान शंकर ने आकाशवाणी करके कहा, "हे ब्राह्मण! मेरा शाप व्यर्थ नहीं जायेगा। इस शूद्र को 1000 बार जन्म अवश्य ही लेना पड़ेगा किन्तु जन्मने और मरने में जो दुःसह दुःख होता है वह इसे नहीं होगा और किसी भी जन्म में इसका ज्ञान नहीं मिटेगा। इसे अपने प्रत्येक जन्म का स्मरण बना रहेगा जगत् में इसे कुछ भी दुर्लभ न होगा और इसकी सर्वत्र अबाध गति होगी मेरी कृपा से इसे भगवान श्री राम के चरणों के प्रति भक्ति भी प्राप्त होगी।"

इसके पश्चात् उस शूद्र ने विन्ध्याचल में जाकर सर्प योनि प्राप्त किया। कुछ काल बीतने पर उसने उस शरीर को बिना किसी कष्ट के त्याग दिया वह जो भी शरीर धारण करता था उसे बिना कष्ट के सुखपूर्वक त्याग देता था, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग कर नया वस्त्र पहन लेता है। प्रत्येक जन्म की याद उसे बनी रहती थी। श्री रामचन्द्र जी के प्रति भक्ति भी उसमें उत्पन्न हो गई। अन्तिम शरीर उसने ब्राह्मण का पाया। ब्राह्मण हो जाने पर ज्ञानप्राप्ति के लिये वह लोमश ऋषि के पास गया। जब लोमश ऋषि उसे ज्ञान देते थे तो वह उनसे अनेक प्रकार के तर्क-कुतर्क करता था। उसके इस व्यवहार से कुपित होकर लोमश ऋषि ने उसे शाप दे दिया कि जा तू चाण्डाल पक्षी (कौआ) हो जा। वह तत्काल कौआ बनकर उड़ गया। शाप देने के पश्चात् लोमश ऋषि को अपने इस शाप पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने उस कौए को वापस बुला कर राममन्त्र दिया तथा इच्छा मृत्यु का वरदान भी दिया। कौए का शरीर पाने के बाद ही राममन्त्र मिलने के कारण उस शरीर से उन्हें प्रेम हो गया और वे कौए के रूप में ही रहने लगे तथा काकभुशुण्डि के नाम से विख्यात हुये।

Source: 
hi.wikipedia.org

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